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________________ अनगार ९७ अध्याय १ लोके विषामृतप्रख्यभावार्थः क्षीरशब्दवत् । वर्तते धर्मशब्दोपि तत्तदर्थोनुशिष्यते ॥ ८९ ॥ पूर्व आकारको छोड कर उससे सम्बन्ध रखते हुए उत्तर आकारके ग्रहणको वस्तु या भाव कहते हैं । ये भाव विष और अमृत दोनोंके समान हुआ करते हैं । इसी आधारपर लोकमें क्षीर शब्द विष और अमृत दोनो प्रकारके पदार्थोंका वाचक है । क्योंकि आकके रसको भी क्षीर कहते हैं जो कि विषके तुल्य है, और गोरसको भी क्षीर कहते हैं जो कि अमृतके समान है। इसी तरह लोकमें धर्मशब्दका भी अर्थ दोनो ही तरहका होता है - विषरूप भी होता है और अमृतरूप भी होता है। क्योंकि लोकमें बहुतसे लोक हिंसाको भी धर्म कहते हैं जो कि दुर्गतियोंके दुःखों का देनेवाला और इसीलिये विषके तुल्य है । और कोई कोई अहिंसाको धर्म कहते हैं जो कि सुखोंका देनेवाला और इसीलिये अमृतके समान है । अत एव उनका पृथकरण करनेकेलिये सर्वज्ञ और इतर आचार्योंकी उपदेशपरम्परासे धर्मशब्दका जो कुछ अर्थ चला आता है उसको बताया जाता है । धर्म शब्दका जो कुछ अर्थ है उसको स्पष्ट करते हैं: धर्मः पुंसो विशुद्धिः सुहगवगमचारित्ररूपा स च स्वां, सामग्री प्राप्य मिथ्यारुचिमतिचरणाकारसंक्लेशरूपम् । मूलं बन्धस्य दुःखप्रभवभवफलस्यावधुन्वन्नधर्मं, संजातो जन्मदुःखाद्धरति शित्रसुखे जीवमित्युच्यतेऽर्थात् ॥ ९० ॥ मूढता आदि दोषोंसे रहित होनेपर दर्शन - श्रद्धान, और संशयादि दोषोंसे रहित होनेपर ज्ञान, एवं मायाचार अन० भ० १३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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