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________________ धर्म - आदि दोषोंसे रहित होनेपर चारित्र प्रशस्त माना जाता है । इन प्रशस्त दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप आत्माकी विशुद्ध परिणतिको ही धर्म कहते हैं । इसके विरुद्ध मिथ्या-विपरीत या असत्य दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनरूप संक्लेश परिणामोंको अधर्म कहते हैं । यह अधर्म उस बंध-कर्मबन्धका आदिकारण है जिसका कि फल अनेक प्रकारके दुःखोंको देनेवाला संसार है। किंतु उक्त धर्म अपनी सामग्री-बाह्य और अभ्यंतर कारणकलापको अथवा श्रेष्ठ ध्यानको प्राप्त कर इस अधर्मको निरवशेष करदेता है और चैदहवें अयोग गुणस्थानके अंत्य समयमें पूर्ण होकर इस जीवको जन्ममरण आदि सांसारिक दुःखोंसे दूर कर शिवसुख-मोक्षमें ले जाकर धर देता है । अतएव वाच्यार्थ अथवा परमार्थकी अपेक्षासे ही इसका नाम "धर्म" ऐसा रक्खा है । क्योंकि व्याकरणके अनुसार धर्मशब्दका ऐसा ही अर्थ होता है कि "धरतीति-धर्मः " अर्थात् जो जीवको दुःखोंसे छुडाकर सुखस्थान ले जाकर धरदे उसको धर्म कहते हैं। .. निश्चय नयकी अपेक्षासे रत्नत्रयके लक्षणका निर्देश-आख्यान करते हुए मोक्षके और संवर तथा निर्जराके एवं बंधके कारणको बताते हैं। - १-जैसा कि तत्वार्थसूत्रमें भी कहा है कि " मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः।" २-इसके विषयमें आगममें भी कहा है सच मुक्तिहेतुरिद्धो ध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोपि । तस्मादभ्यस्वन्तु ध्यानं सुधियः सदाप्यपाल्यालस्यम् ॥ इति । भमानमें समृद्ध होनेपर ही धर्म मोक्षका कारण हो सकता है । अतएव भव्यों को अप्रमत्त होकर इस ध्यानका ही सदा अभ्यास करना चाहिये। अध्यार ।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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