________________
अनमार
मिथ्याभिनिवेशशून्यमभवत्संदेहमोहभ्रम, वान्ताशेषकषायकर्मभिदुदासीनं च रूपं चितः । तत्त्वं सदृगवायवृत्तमयनं पूर्ण शिवस्यैव तद्,
रुन्धे निर्जरयत्यपीतरदऽधं बन्धस्तु तद्व्यत्ययात् ॥ ९१ ॥ मिथ्या-विपरीत-प्रमाणबाधित अथवा सर्वथा या एकान्त रूपसे मानी हुई पर या अपर वस्तुओंका जिसमें आग्रह नहीं पाया जाता ऐसे आत्मरूपको अथवा इस तरहका अभिनिवेश जिस अन्तरंग कारणके - शसे हुआ करता है उस दर्शन मोहनीय कर्मसे शून्य आत्मस्वरूपको निश्चयसे सम्यग्दर्शन समझना चाहिये।
यह स्थाणु है अथवा पुरुष, इस तरहकी चलायमान प्रतीतिको संशय; जिसमें अपने विषयका कोई भी निश्चय न हो उसको अनध्यवसाय; और, विरुद्ध पदार्थके ग्रहणको भ्रम या विपर्यय कहते हैं । ये ज्ञान के तीन दोष हैं। जिसमें ये तीनो ही दोष नहीं पाये जाते, निश्चयसे आत्माके उस स्वरूपको ही सम्यग्ज्ञान
रहकी चलायमान ।
के तीन दोष हैं। जिसको अनध्यवसाय
-
स्वतः क्रोधादि कषायोंको तथा हास्यादि कषायोंको दूर करदेनेवाले और, ज्ञानावरणादि कर्मोंको अथवा मन वचन कायके द्वारा होनेवाले व्यापाररूप कर्मको नष्ट करदेनेवाले तथा उदासीन-उपेक्षारूप आत्मस्वरूपको ही निश्चयसे सम्यक् चारित्र कहते हैं।
याय|
१ “मिथ्याभिमाननिमुक्तिज्ञानस्येष्टं हि दशन् ।
झानत्वं चार्थविज्ञप्तिश्चयात्वं कर्महन्तृता ।।" इति । ज्ञानमेंसे मिथ्या अभिमानके दर होजानको दर्शन, अर्थके जान लेनेको ज्ञान और कर्मोंकी घातकताको चारित्र कहते हैं।
-