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अनगार
नाभृन्नास्ति न वा भविष्यति तपःस्कन्धे तपो यत्सम, कर्मान्यो भवकोटिभिः क्षिपति यद्योन्तर्मुहूर्तेन तत् । शुईि वानशनादितोऽमितगुणां येनाश्रुतेश्नन्नपि, खाध्यायः सततं क्रियेत स मृतावाराधनासिद्धये ॥ २३ ॥
धर्म
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अशनादिक तप करके जो विशुद्ध परिणाम प्राप्त होसकते हैं उनसे भी अनन्तगुणी विशुद्धिको स्वाध्यायके द्वारा यह जीव प्रतिदिन भोजन करता हुआ भी प्राप्त करलेता है । यथाशक्ति उपवासादि करते हुए यदि स्वा ध्याय किया जाय तब तो बात ही क्या है। इसी तरह जिन कर्मोको दूसरे तपोनिधि करोडो भवमें निर्जीर्ण कर सकते हैं उन्ही कर्मोंको यह स्वाध्याय केवलं अन्तर्मुहूर्तमें-कुछ कम दो घडी मात्र कालमें खिपा देता है। तथा यह स्वाध्याय एक अपूर्व ही तप है। जो कि अनेक अतिशयोंसे युक्त है। जैसा कि पहले बताया भी जा चुका है। अ. नशनादिक छह प्रकारके बाह्य तप और प्रायश्चित्तादिक पांच प्रकारके अन्तरङ्ग तप इन सबमें इस स्वाध्यायके समान न तो कोई तप हुआ, न है, न होगा। अत एव मरणसमयमें आराधनाकी सिद्धिकेलियेसम्यग्दर्शनादि परिणामोंमें सातिशय वृत्तिकी प्राप्तिकालये मुमुक्षुओंको नित्य ही स्वाध्याय करना चाहिये ।
भावार्थ--ज्ञानाराधनाके अनेक फलोंमें एक बड़ा भारी फल समाधिमरणकी सिद्धि भी है। किंतु वह तभी सिद्ध हो सकता है जब कि प्रतिदिन उसका आराधन किया जाय । अत एव मुमुक्षुओंको नित्य ही स्वाध्याय -ज्ञानका आराधन करना चाहिये ।
श्रुतज्ञानकी आराधना परम्परासे मोक्षका कारण है ऐसा बताते हैं:
अध्याय
श्रुतभावनया हि स्यात् पृथक्त्वैकत्वलक्षणम् ।
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अ. ध. ३५
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