SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनगार ३०३ ऊपर पर्याप्तक और अपय तक दो भेद करके प्राणोंकी गणना की है। किंतु यह नहीं बताया कि पर्याप्त किसको कहते हैं । अत एव इन दोनोंका लक्षण आगमके अनुसार यहां बता देते हैं:-- गृहवस्त्रादिकं द्रव्यं पूर्णापूर्ण यथा भवेत् । पूर्णेतरास्तथा जीवाः पर्याप्ततरनामतः ।। आहारांगेद्रियप्राणवाचः पर्याप्तयो मनः । चतस्रः पञ्च षट् चैकद्वयक्षादौ संझिनां च ताः ।। पयाप्ताख्योदयाज्जीवः स्वस्वपयाप्तिनिष्ठितः । वपुयावदपर्याप्त तावनिर्वृत्त्यपूणकः ॥ निष्ठापयेन पयाप्तिमपूणस्योदये स्वकाम् । सान्तर्मुहूर्तमृत्युः स्याल्लब्ध्यपर्याप्तकः स तु ॥ जिस प्रकार संसारमें मकान वस्त्र वर्तन आदि द्रव्य पूर्ण और अपूण दो प्रकारके हुआ करते हैं । उसी प्रकार संसारी जीव भी पूर्ण अपूर्ण दो तरहके हुआ करते हैं । इन्हीको पर्याप्त अपर्याप्त कहते हैं । आहारादि परिणमन जिससे होते हैं उस शक्तिके कारणोंकी निष्पत्ति पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं । ये पर्याप्ति छह प्रकारकी हैं-आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छास भाषा और मन । जिन जीवोंकी पर्याप्तिनाम कर्मके उदयसे अपने अपने योग्य पर्याप्तयां पूर्ण होजाती हैं उनको पर्याप्त और जबतक उनकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक उनको निवृत्त्यपर्याप्त कहते हैं । एकेन्द्रियोंके चार द्वीन्द्रियादिकोंके पांच और संञी पंचन्द्रियोंके छह पर्याप्ति होती हैं । जो जीव अपर्याप्तिनाम कर्मके उदयसे अपनी पर्याप्तियोंको पूर्ण नहीं कर सकते और अन्तर्मुहूर्तमें ही मृत्युको प्राप्त होजाते हैं उनको लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं। १-आहारपरिणामादिशक्तिकारणसिद्धयः। पर्याप्तयः षडाहारदेहाक्षोच्छासवाङ्मनः ।। अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy