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________________ अनगार ૪૮ अध्याय पायादपायादात्मानं मनोवाक्कायगुप्तिभि: ॥ १५५ ॥ जिस प्रकार राजा रत्नों-तत्तजातिके उत्कृष्ट पदार्थोंसे भासुर - शोभायमान अपने नगरकी, उसके अभ्युदयको नष्ट करदेनेवाले अपायों से प्राकार परिखा और वप्रके द्वारा रक्षा किया करता है उसी प्रकार व्रतियो सम्यग्दर्शन प्रभृति रत्नोंसे भासुर - देदीप्यमान अपनी आत्माकी रत्नत्रयके विघातक अपायोंसे मनोगुप्ति वचनगुप्ति और काय गुप्तिके द्वारा रक्षा करनी चाहिये । भावार्थ -- परिखा शब्दका अर्थ खाई है, जो कि नगर के चारो तरफ कृत्रिम नदीके रूपमें बनाई जाती है । इसके भीतर किन्तु नगर के चारो तरफ जो परकोटा बनाया जाता है उसको प्राकार कहते हैं । इसी प्रकार खाई बाहिर किन्तु नगरके चारो तरफ जो धूलिका परकोटा बनाया जाता है उसको वप्र कहते हैं। जिस प्रकार इन तीनो उपायोंसे राजधानीके अभ्युदयकी रक्षा होती है उसी प्रकार तीनो गुप्तियोंसे आत्मा के रत्नत्रयकी रक्षा हुआ करती है । अत एव राजाओंके समान व्रतियों को भी क्रमसे प्राकार परिखा और वप्रके तुल्य मनोगुप्ति और का गुप्तिके धारण करनेमें अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये । मनोगुप्ति आदिका विशेष लक्षण बताते हैं: रागादित्यागरूपामुत समयसमभ्याससद्ध्यानभूतां, चेतोगुप्तिं दुरुक्तित्यजनतनुमवाग्लक्षणां वोक्तिगुप्तिम् । कायोत्सर्ग स्वभावां विशररत चुरापोह देहामनीहा कायां वा काय गुप्तिं समदृगनुपतन्पाप्मना लिप्यते न ॥ १५६ ॥ जीवन और मरणप्रभृति सभी हेय और उपादेय पदार्थों के विषय में समान बुद्धि रखनेवाला अथवा - SPECIALGADDESS धर्म० ४८४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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