SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार ४८५ अध्याय ४ उनका यथावत् श्रद्धान करनेवाला वह साधु ज्ञानावरणादिक पापकर्मों से कभी भी लिप्त नहीं होता जो कि तीनो गुप्तियों का निरन्तर पालन किया करता है। इन गुप्तियों का स्वरूप इस प्रकार है: 11 रागद्वेष कषायोंके और मोहके अभावको, यद्वा विनयपूर्वक समयका अच्छी तरह अभ्यास करनेको, अथवा समीचीन ध्यानको मनोगुप्ति कहते हैं। समय तीन प्रकारका बताया है-- शब्दसमय, अर्थसमय, और ज्ञानसमय जिसका कि अर्थ क्रमसे वाचक वाच्य और प्रत्यय होता है। इस विषय में एक जगह कहा है कि: विहाय सर्वसंकल्पान् रागद्वेषावलम्बितान् । स्वाधीनं कुर्वतश्वेतः समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ॥ सिद्धान्तसूत्र विन्यासे शश्वत् प्रेरयतोथवा । भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिणः || • रागद्वेष के निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले समस्त संकल्प विकल्पोंको छोडकर समताभावमें स्थिर होजाने वाले अपने मनको जो व्यक्ति अपने अधीन वशमें करलेता है, अथवा सिद्धान्तकी सूत्ररचना के विषयमें निरन्तर ही जो अपने मनको लगाता रहता है उसी विचारशील पुरुषके परिपूर्ण मनोगुप्ति पल सकती है। कठोर वचनादिकके छोडदेने को अथवा मौन धारण करनेको वचनगुप्ति कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि: साधुसंवृतवाग्वृत्तेमनारूढस्य वा मुनेः । संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्तिः स्यान्महामतेः ॥ जो महामति मुनि संज्ञा- -इशारे आदिको छोडकर अपनी वचनप्रवृत्तिको अच्छी तरह संवरण करलेता है अथवा मौन धारण करलेता है उसीके वचनगुप्ति हो सकती या कही जा सकती है । NARAMRI SATSA धर्म ४८५
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy