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________________ और भी कहा है कि: अनगार किमत्र बहुनोक्तेन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः। ध्येयं समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्य तत्र बिभ्रता ॥ ४७९ अधिक क्या कहें. सभी पदार्थोंको याथात्म्यरूपसे जानकर और उनका श्रद्धान कर उनमें माध्यस्थ्यको धारण करनेवाले साधुओंको उन सभी पदार्थों का ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार चेतन या अचेतन किसी भी पदार्थका ध्यान मुमुक्षुओंको अपनेको-निजात्मम्वरूपको परमादासन्यि परिणामकी तरफ उन्मुख-प्रयत्नपर करना चाहिये । और ऐमा होकर अहंत-जीवन्मुक्त भगवान्का अथवा आचार्य उपाध्याय साधु इन तीनोंमेंसे किसी भी एकका एकाग्रतया ध्मान करना चाहिये । इसपर पुनः पुनः ध्यान करके और परमौदासीन्यस्वरूप परिणत होकर परममुक्त श्रीसिद्ध भगवान्का एकाग्रतया ध्यान करनेमें रत होना चाहिये । कहा भी है किः सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते । तती ज्ञानस्वरूपोयमात्मा ध्येयतमः स्मृतः ।। तत्रापि तत्त्वतः पंच ध्यातव्याः परमेष्ठिनः । चत्वारः सकलास्तेषु सिद्धस्वामी तु निष्कलः ।। अध्याय जिस समय ज्ञाता ज्ञेयविषयोंकी तरफ प्रवृत्त होता है उस समय उसके सभी ज्ञेय पदार्थ ध्येय होजाते हैं। किंतु इसके बाद होनेवाला यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रशस्त ध्येय मानागया है। और उसमें भी पंचपरमेष्ठी ही वस्तुत. ध्येय समझने चाहिये। जिनमेंसे कि चार अर्हन्त आचार्य उपाध्याय और साधुपरमेष्ठी तो सश रीर ध्येय हैं और एक सिद्ध परमेष्ठी अशरीर ध्येय हैं।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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