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________________ बनगार इस क्रमसे ध्यान करते करते योगियोंका मन जिस आत्मज्योतिका वेवेदन करते हैं तन्मय होजाता है। जैसा कि कहा भी है किः लवणं व सलिलजोए झाणे चित्तं विलीयए जस्स । तस्स सुहासुहडहणो अप्पा अणलो पयासेइ ॥ जिस प्रकार नमककी डली पान के सम्बन्धसे गलकर पानीरूप ही होजाती है उसी प्रकार जिस सांधुका मन ध्यानमें लीन होकर ध्येयरूप ही होजाता है उसके वह आत्मारूप अग्नि प्रकाशित होती है जो कि शुभ और अशुभ अथवा सुख और असुख तथा उनके कारणोंको जलाकर भस्म कर देती है। हे महाव्रतोंके पालन करनेमें उद्यत मुने ! जिस साधुका मन इस प्रकारके आत्मतेजोमय स्वरूपको प्राप्त कर चुका है, निश्चयसे उसी साधुको सिद्ध समझना चाहिये । वह शुद्धनिश्चयवादियोंमें, अच्छी तरह धारण किये गये महाव्रतोंमें निष्णात होजानेके कारण प्रसिद्ध होजाता है । कहा है कि: स च मुक्तिहेतुरिद्धो ध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोपि । तस्मादभ्यस्यन्तु ध्यानं सुधियः सदाप्यपास्यालस्यम् । आगमप्रसिद्ध दोनो ही प्रकारके मोक्षमार्गकी पूर्णतया प्राप्ति ध्यानमें अथवा उसके द्वारा ही हो सकती है । अत एव विवेकियोंको आलस्यगहित होकर निरन्तर उस ध्यानका ही अभ्यास करना चाहिये । अथवा पूर्वोक्त प्रकारसे शुद्धस्वरूपपरिणत ध्याताको निश्चयसे भावोंकी अपेक्षा सिद्ध-परममुक्त ही समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि: परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्हद्धथानाविष्टो भावाईन् स्यात् स्वयं तस्मात् ।। बध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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