SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार धर्म. जो आत्मा जिस रूपसे परिणत होता है-जिस विषयका ध्यान करता है वह उस ध्यानके द्वारा तन्मय होजाता है। यही कारण है कि अर्हन्तके ध्यानमें आविष्ट आत्मा स्वयं भावतः अर्हन हो जाता है । और भी कहा है कि येन भावेन यद्पं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥ जिस प्रकार स्फटिकके पीछे जैसी उपाधि लगाई जाय वह वैसा ही हो जाता है उसी प्रकार आत्मज्ञानी साधु जिस भावके द्वारा अपनी आत्माका जिस रूपसे ध्यान करता है उस भावके द्वारा वह उसी स्वरूप हो जाता है। भावार्थ -साधुओंको मैत्री आदि भावनाओंके द्वारा रागद्वेषरहित होकर युक्तियुक्त आगमके अनु सार जीवादिक वस्तुओंका यथावत् श्रद्धान करना चाहिये । और उसके विषयभूत पदार्थोंका समतापूर्वक परमोदासीन्य योग्यता प्राप्त होनेतक ध्यान करना चाहिये । इसके बाद सकल परमेष्ठीका और अन्तमें सिद्ध भगवान्का ध्यान करना चाहिये । जिसके बलसे कि स्वयं सिद्धस्वरूपकी प्राप्ति हो जाय । इस प्रकार महाव्रतोंका और उनके विशेष सामान्य भावनाओं तथा रात्रिभोजनत्यागरूप परिकरोंका निरूपण किया । अब गुप्ति और समितिका व्याख्यान करना चाहते हैं । क्योकि इस अध्यायकी आदिमें सम्यक्चारित्ररूपी छायापक्षका व्रतोंको प्रकाण्ड, गुप्तियोंको अग्रशाखा और समितियों को उपशाखा लिखा जा चुका है। अत एव प्रकाण्डबतवर्णनके बाद गुप्ति और समितिका वर्णन क्रमप्राप्त है। तीन गुमि और पांच समिति इनको आगममें प्रवचनमाता कहा है। ऐसा क्यों कहा है इस बातकी उपजत्ति जताते हुए जलायत अक्षुओंको उनकी आराध्यताका उपदेश देते है: माया अहिंसा पञ्चात्म व्रतमथ यताङ्गं जनयितु,
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy