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________________ धर्म अनगार चइ जिणमयं पर्वजह ता मा ववहारणिच्छए मुअह । एकेण विणा छिज्जइ तित्व अण्णेण पुण तचं ।। चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्यमुकवावारा । चरणकरणं ससार णिच्छ्यसुद्ध ण जाणन्ति । णिच्छयमालंबता णिच्छयदो णिच्छयं अजाणता। णासिंति चरणकरण बाहिरकरणालसा केई ।। इति । यदि तुम जिनमतको चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इनमेंसे किसी भी नयको मत छोडो । क्योंकि इनमेंसे एक व्यवहार नयके बिना तीर्थका और दूसरे निश्चयनयके विना तत्वका लोप हो जाता है। ऐसा न समझ कर जो व्यक्ति केवल चरणक्रिया-बाह्य चारित्रको ही प्रधान मानता है वह अवश्य ही परमाथसे आत्मकल्याणके व्यापारसे रहित है । क्योंकि ऐसा व्यक्ति चरणक्रियाको ही आत्मसिद्धिका सार समझ बैठता है। वह निश्चयसे आत्माके शुद्ध सारको सारभूत तत्त्वको नहीं जानता । इसी प्रकार जो केवल निश्चय नयका ही अवलम्बन लेनेवाला है, यह मिश्चय है, कि वह निश्चय नयको भी नहीं समझता । ऐसा व्यक्ति स्वयं बाह्य चारित्रमें आलसी हो जाता है और चारित्र-धर्मको नष्ट कर डालता है। ९-नौवां गुण यह होना चाहिये कि उसके शासनका पर्यवसान छह कायके जीवोंका पालन करना ही हो। और इसीलिये जिसकी आज्ञा-जिसके शासन या नियोगको स्व और पर सभी आदरके साथ माननेवाले हों। - १०-दशवां गुण प्रधानता है । सभी लोक आकर जिसका सुखपूर्वक आश्रय लेते हों। इस गुणके कहनेसे, प्रिय हित वचनका बोलना, प्रायः प्रश्नोंको सह सकना इत्यादि गुणोंको भी समझ लेना चाहिये. - इस प्रकार दश विशेषणोंसे युक्त परहितमें ही निरत रहनेवाले निग्रंथाचार्यवरको धर्मका उपदेश देना चाहिये। अध्याय ३३ अन००५
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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