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________________ CHSEXHX5269वार अनगार इस पद्यमें ग्रंथकारने आशी:-अर्थमें लोट लकारका प्रयोग किया है। जिससे यह अभिप्राय प्रकट होता है कि "हम [ग्रंथकार] आशा करते हैं कि देशनाका अधिकारी इन गुणोंसे युक्त हो" अथवा स्वरूपज्ञान कराने-अर्थमें भी इस लकारका प्रयोग होसकता है। जिससे यह अर्थ प्रकट होता है कि “इन गुणोंसे युक्त गणीको सत्कारपूर्वक धर्मोपदेशमें प्रवृत्त होना चाहिये ।" _ अब ग्रंथकार यह बताते हैं कि जो मोक्षकी इच्छा रखनेवाले हैं उनको अध्यात्म शास्त्रका रहस्य जाननेवाले गुरुओंकी सेवा करनी चाहिये। विधिवद्धर्मसर्वस्वं यो बुद्ध्वा शक्तितश्चरन् ॥ प्रवति कृपयान्येषां श्रेयः श्रेयार्थिनां हि सः ॥ १०॥ व्यवहार और निश्चय नयके द्वारा रत्नत्रयात्मक धर्मके पूर्ण और असाधारण स्वरूपको परमागम सद्गुरुओंकी सम्प्रदाय आम्नाय और अपने ज्ञानके अनुसार समझकर और यथाशक्ति उसका पालन करता हुआ जो व्यक्ति दूसरोंको भी, किसी प्रकारकी ख्याति लाभ या पूजा आदिकी अपेक्षासे नहीं, किंतु, केवल अनुकम्पाके वश होकर-परोपकार करने ही की अभिलाशासे उस धर्मसर्वस्वकी विधेयताका इस तरहसे ज्ञान करा देता है कि जिससे उन श्रोताओंका उस विषयका अज्ञान समूल नष्ट हो जाय; वही गुरु कल्याण-मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले भव्योंको सेव्य है । मुमुक्षुओंको ऐसे ही गुरुकी सेवा करनी चाहिये । उक्त देशनाके अधिकारी आचार्य और अध्यात्म रहस्यके उपदेष्टा इन दोनो ही का लोकमें प्रभाव प्रकट हो ऐसी आशा-भावना प्रकट करते हैं:-- स्वार्थेकमतयो भान्तु मा भान्तु घटदीपवत् । पराधै स्वार्थमतयो ब्रह्मवद्वान्त्वहर्दिवम् ॥ ११ ॥ EXANTARAHARA २४ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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