SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 701
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आलोचन के सम्बन्धमें देशकालके विधानका निर्णय करते हैं: प्राङ्गेऽपराह्ने सद्देशे बालवत् साधुनाखिलम् । स्वागस्त्रिरार्जवाहाच्यं सूरेः शोध्यं च तेन तत् ॥ ३९ ॥ अपराध करनेवाले साधको अपना सम्पूर्ण पाप धर्माचार्य के सम्मुख माया या कपटको छोडकर चालककी तरह ज्योका त्यों कहदेना चाहिये । तथा याद कर करके तीन वार कहना चाहिये । जैसा कि कहा भी बनगार इयमुजुभावमुवगदो संवेदो सेसारं तु तिक्खतो । लेस्साहि विसुझंतो उवेदि सल्लं समुद्धरिदुं ॥ जह बालो जपतो कजमकजं च उज्जुगं भणदि । तह आलोचेदव्वं मायामोसं चमोत्तणं ।।। • इस प्रकार जब साधु अपने दोषोंका निवेदन कर चुके तर धमाचार्यको प्रात:कालके समय अथवा सायंकाल के समय प्रशस्त स्थानमें और उत्तम लममें सुनिरूपित प्रायश्चित्त देकर उस साधुके अपराधका निराकरण करदेना चाहिये। अहंदगृह सिद्धक्षेत्र समुद्र कमलसरोवर क्षीरफलोंसे व्याप्त स्थान ओर तोरण उद्यान आदि स्थान आलोचन करने और प्रायश्चित्त देनेके लिये उत्तम और प्रशस्त मानेगये हैं। आचार्यगण ऐसे स्थानोंपर ही साधका शुद्ध करनेकेलिये आलोचना कराना चाहते हैं । स्थानकी तरह लग्नके विषयों में शुभ चन्द्रमा तिथि नक्षत्र घडी आदि देखलेना उचित है । जैसा कि कहानी है कि: आलोचणादिआ पुण होदि पसत्थेवि सुद्धभावं सा। पुव्वले अवरहे सोम्मतिहीरिक्खवेलाए ।। अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy