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________________ बनगार प्रायः शब्दका अर्थ लोक और चित्त शब्दका अर्थ मन होता है । अत एव उस क्रिया या अनुष्ठानको प्रायाश्चत्त कहते हैं जिसके कि करनेसे अपने साधर्मी और सङ्घमें रहनेवाले लोगोंका मन अपनी तरफसे शुद्ध हो जाय । किसीसे अपराध बनजानेपर सहवर्तियों के मन में जो ग्लानि उत्पन्न हो जाती है वह जिस कर्मके करनेसे दूर हो जाय उसीको प्रायश्चित्त कहते हैं। · अथवा प्रायः शब्दका अर्थ तप और चित्त शब्दका अर्थ निश्चय होता है। अत एव अनशन अब. मोदय आदि तपोंके विषयमें उनकी अनुष्ठेयताके श्रद्धान करनेको भी प्रायश्चित्त कहते हैं। साधुओंका चित्त जिस कर्ममें लीन हो या रहना चाहिये उस कर्मको अथवा अपराधके संशोधनको भी प्रायश्चित्त कहते है। इस प्रायाश्चत्त नामक तपके दश भेद माने हैं। यथा:-आलोचन प्रतिक्रमण तदुभय [ आलोचनप्रतिक्र. मण ] विवेक व्युत्सर्ग उप छेद मूलपरिहार और श्रद्धान । इनसे क्रमके अनुसार पहले भेद आलोचनका स्वरूप और उसके भेद दिखाते हैं: सालोचनाद्यस्तद्भेदः प्रश्रयाद्धर्मसूरये। यद्दशाकम्पिताधूनं स्वप्रमादनिवेदनम् ॥ ३८ ॥ धर्माचार्यके सम्मुख विनय और भक्तिसे नम्र होकर अपने प्रमाद और तज्जनित दोषोंको छोडकर निवेदन करदेने का नाम आलोचन प्रायश्चित्त है । जैसा कि कहा भी है कि: मस्तकविन्यस्तकरः कृतिकर्म विधाय शुद्धचेतस्कः । आलोचयति सुविहितः सर्वान् दोषांस्त्यजन् रहसि ॥ आलोचन प्रायश्चित्तके विषयमें एक बात विशेष समझनेकी है । वह यह कि पुरुष यदि अपने दोषोंक। आलोचन करे तो एकान्तमें भी कर सकता है, किंतु स्त्रियोंको ऐसा न करना चाहिये । उन्हे दो या तीनके आश्रयसे तथा प्रकाशमें ही आलोचन करना उचित है। . अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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