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________________ अनगार ६३२ अध्याय ६ फिर उस रत्नत्रयका मिलना और भी अधिक कष्टसाध्य हो जायगा । इसी बातको बताते हैं:-- दुष्प्रापं प्राप्य रत्नत्रयमखिलजगत्सारमुत्सारयेयं, चेत्प्रज्ञापराधं क्षणमपि तदरं विप्रलब्धोक्षधूर्तेः । तत्किचित्कर्म कुर्यादनुभवमवत्क्लेशसं क्लेशसंविद्, बोधेर्विन्दे वार्तामपि न पुनरनुप्राणनास्याः कुतस्त्याः ॥ ७९ ॥ सम्पूर्ण संसार में सारमृत और दुर्लभ इस रत्नत्रयको पाकर यदि मैंने प्रज्ञापराधको नहीं छोडा और क्षणमात्र केलिये भी उसको प्रमादरूप आचरणको धारण किया तो अवश्य ही मैं इन इंद्रियरूपी धूर्तोंसे ठगा जाऊंगा और शीघ्र ही मेरें उस दारुण कर्मका संचय होगा कि जिसके उदयसे होने वाले क्लेशं और संक्लेश दोनों का ही मुझे अनुभव करना पडे । इन भावोंका अनुभव करनेपर सम्यग्दर्शनादिका पुनरुज्जीवन तो कहां, उसकी बात भी मैं न पा सकूंगा । अत एव रत्नत्रयको पाकर मुझे प्रति समय ऐसी सावधानता रखनी चाहिये कि जिससे क्षणमात्रके लिये भी वह छूट न जाय । भावार्थ - एक निगोद शरीर में सिद्धराशिसे अनंतगुणे जीव रहा करते हैं। ऐसे ही स्थावर जीवोंसे यह सम्पूर्ण लोक खचाखच भरा हुआ है। इसमें त्रसता पंचेंद्रियत्व मनुष्यत्व देश कुल इन्द्रिय आरोग्य और सद्धर्भकी संपत्तिका प्राप्त करना उत्तरोत्तर कठिन है; तब उक्त सम्पूर्ण बातोंका मिलना तो और भी कठिन है। किंतु इन सब बातोंके मिलनेपर भी समाधि मरणका होना बहुत ही कठिन है। रत्नत्रयका फल भी समाधि मरण ही है । अत एव सम्यग्दर्शनादिकका प्राप्त होजाना भी समाधि मरणके होजानेपर ही सफल हो सकता है । इस प्रकार रत्नत्रयकी दुर्लभताके विचार करते रहनेको ही बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं । जो साधु इस प्रकार निरंतर विचार करता रहता है वह उसकी रक्षामें सावधान रहता है। वह दुर्लभ रत्नत्रयको पाकर एक क्षणके लिये भी ऐसा प्रमाद नहीं करना चाहता जिससे कि उसकी रंचमात्र भी मलिनता हो सके । ६३२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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