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________________ धर्म बनगार ६३१ जातु द्वाभ्यां कदाचित्रिभिरहमसकृज्जातुचित्खैश्चतुर्भिः । श्रोत्रान्तैः कर्हिचिच्च क्वचिदपि मनसानेहसीदृङ्नरत्वं, प्राप्तो बोधि कदापं तदलमिह यते रत्नवजन्मसिन्धौ ॥ ७८ ॥ . मैंने अत एव आत्मस्त्ररूपसे अनभिज्ञ रहकर पर पदार्थोंको ही अपना समझा । इसी लिये चिरकाल तक मैं मिथ्यात्वरूप निबिड अन्धकारसे व्याप्त निगोतादि स्थानोंमें एकेद्रिय होकर उत्पन्न हुआ और इसी तरह अनंतकाल मैने वहांपर व्यतीत करदिया । कभी कभी स्पर्श और उस गुणसे प्रधानतया युक्त परद्रव्यको आत्मस्वरूप समझकर मैं लट वगैरह द्वीन्द्रिय जीवस्थानोंमें भी उत्पन्न हुथा। और चिरकालतक उन अन्धकारमय स्थानोंमें ही बना रहा । इसी प्रकार अनंत वार पिपीलिकादि स्थानों में भी मैं उत्पन्न हुआ जहाँपर कि स्पर्शन रसन और घ्राण ये तीन ही इन्द्रियां पाई जाती हैं । अनेक वार श्रोत्रेन्द्रियको छोडकर वाकी चार इन्द्रियोंसे युक्त भ्रम. रादिक पर्यायोंमें भी मैं उत्पन्न हुआ। कदाचित् श्रोत्रेन्द्रियसे भी युक्त किंतु मनसे रहित गोरहरादि असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्यायोंमें भी मै उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार अनेक वार संज्ञी पंचेन्द्रिय भी हुआ, कदाचित मनुष्य भी हुआ। किंतु इन सभी पर्यायोंमें मैं आत्मस्वरूपसे पराङ्मुख ही रहा। मैंने पर पदार्थों को कभी स्पर्शप्रधान कभी स्पर्शरसनधान कभी स्पर्शरसगन्धप्रधान तो कमी स्पर्शरसगंधवर्ण चारो गुणोंसे युक्त पुद्गलद्रव्यको ही अपना स्वरूप समझा। प्रायः विना इच्छाके किंतु कभी कमी---मनुष्यादि पर्यायोंमें इच्छासहित भी मैं उत्पन्न हुआ परंतु मिथ्यात्वके निबिड अंधकारमें ही पड़ा रहा । क्या मैंने कभी भी इस उत्तम कुल प्रशस्त जाति आदिसे युक्त मनुष्य पर्यायको पाकर रत्नत्रयको भी पाया है ? नहीं, कभी नहीं। क्योंकि जिस प्रकार समुद्र में बहुमूल्य रत्नका मिलना अत्यंत दुर्लभ है उसी प्रकार संसारमें इस रत्नत्रयका पाना भी अत्यंत दुर्लभ है । अत एव जन्ममरणरूप इस संसारसमुद्र में इस दुर्लभ रत्नत्रयको ही पानेका मुझे यथेष्ट प्रयत्न करना चाहिये । यदि पाया हुआ यह रत्नत्रय कदाचित् प्रमादसे क्षणके लिये भी छूट गया तो उसी क्षणमें ऐसे कमा. का बन्ध होगा कि जिनका उदय होते ही मुझे उनके वशमें पडकर दुःखों और क्लेशोंका ही अनुभव करना पडेगा। ६३१ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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