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________________ धर्म - अर्थात् सुख और उसके कारण तथा कारणों के भी कारणों की प्राप्तिको यद्वा दुःख और उसके कारण तथा कारणोंके भी कारणों की निवृत्तिको शान्ति कहते हैं। जपवाद और आशीर्वचनोंका अर्थ स्पष्ट ही है। यथाः जयन्ति निर्जिताशेषसर्वथैकान्तनीतयः । सत्यवाक्याधिपाः शश्वद्विद्यानन्दा जिनेश्वगः॥ तथा जयन्ति विधुताशेषबन्धना धर्मनायकाः । त्वं धर्मविजयी भूत्वा तत्प्रसादाजपाखिलम् ।। तथा जयत्वसौ श्रीवृषभो जिनेश्वरः, सुरावधूना सिचामरावली। ... बभौ यदने प्रतिबिम्बिताभितो, वेरिवान्तश्चल दिन्दुसंहतिः॥ अथवा- नतामरशिरोरवप्रभारोतनखत्तिये । नमो जिनाय दुर्वारमारवीरमदच्छिदे ।। इसी प्रकार " स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुंगवाय"-इत्यादि और भी वचनोंको समझना चाहिये। क्रमप्राप्त व्युत्सर्ग नामक तपके दो भेदोंको और उसकी दोनों भावनाओंको बताते हैं: बाह्यो भक्तादिरुपधिः क्रोधादिश्चान्तरस्तयोः। त्यागं व्युत्सर्गमावान्तं मितकालं च भावयेत् ॥ ९३ ॥ व्यत्सर्ग नाम त्यागका है । वह दो प्रकारका हो सकता है। एक बाह्य दुसरा अन्तरङ्ग । आहार वसतिका आदि ऐसे पदार्थोंका जिनका कि आत्मासे सम्बन्ध नहीं है त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग कहा जाता है। और जिनका कि आत्मासे सम्दन्ध हो रहा है ऐसे क्रोधादि कषायरूप अन्तरंग परिग्रहके त्यागको अन्तरङ्ग व्युत्सर्ग कहते हैं। इन दोनों ही प्रकार के व्युत्सर्गतपका यावजीवन अथवा कालका प्रमाण करके मुमुक्षुओंको पालन करनेका पुनः पुनः विचार करना चाहिये । मध्याम - ७२० -
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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