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________________ अनगार व्युत्सर्ग शब्दका निरुक्तिसे क्या अर्थ होता है, सो बताते हैं:बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतवः । यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सों निरुच्यते ॥ ९४ ॥ माता पिता स्त्री पुत्र भ्राता भगिनी भागिनेय आदिका संसर्ग बाह्यदोष है, और ममकार अहंकार आदि भाव अन्तरङ्ग दोष हैं। इनके भी उत्तर मेद अनेक हैं । ये अन्तरङ्ग और बाह्य दोष ही कर्मबन्धके कारण हैं। अत एव इन वि-विविध दोषोंके उत् -उत्तम-प्राणान्तिक और ख्याति लाम पूजा आदि की अपेक्षासे रहित सर्गपरित्यागको व्युत्सर्ग कहते हैं। व्युत्सर्गके उत्कृष्ट स्वामीको बताते हैं:देहाद्विविक्तमात्मानं पश्यन् गुप्तित्रयीं श्रितः । स्वाङ्गेपि निस्पृहो योगी व्युत्सर्ग भजते परम् ॥ ९५ ॥ जो अपनी आत्माका शरीरसे सर्वथा मित्र अनुभव करता रहता है और जो तीनों ही गुप्तियोंका सर्वथा पालन करनेवाला तथा बाह्य पदार्थों में ही नहीं अपने शरीरमें भी निस्पृह रहता है ऐसा योगी-समीचीन ध्यान में स्थिर रहनेवाला यति ही उत्कृष्ट व्युत्सर्गका धारक हो सकता है। अन्तरङ्ग परिग्रहके व्युत्सर्गका स्वरूप प्रकारान्तरसे बताते हैं:-- कायत्यागश्चान्तरङ्गोपधिव्युत्सर्ग इष्यते ।। स द्वेधा नियतानेहा सार्वकालिक इयपि ॥ ९६ ॥ शरीरके परित्याग करनेको भी पूर्वाचार्योंने अन्तरङ्ग परिग्रहका व्युत्सर्ग ही माना है। इसके भी दो भेद हैं-एक नियतकाल दूसरा सार्वकालिक । अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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