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________________ अनगार ४५० उक्त गृहादिक परिग्रहोंमें लगी हुई ममत्वबुद्धिरूप मूर्छाके निमित्तसे आये हुए और उसके रक्षणादिके द्वारा संगृहीत पापकर्म अत्यंत दुर्जर हैं-वे बडी ही कठिनतासे आत्मासे सम्बन्ध छोडते हैं, इस बातको प्रकट करते हैं:-- तद्गहाद्युपधौ ममेदामिति संकल्पेन रक्षार्जना,संस्कारादिदुरीहितव्यतिकरे हिंसादिषु व्यासजन् । दुःखोद्गारभरेषु रागविधु'प्रज्ञः किमप्याहर,-- त्यंहो यत्प्रखरेपि जन्मदहने कष्टं चिरायति ॥ १३४ ॥ गृहादिकोंमें लगी हुई तृष्णाके कारण अंधी या विपर्यस्त होगई है प्रज्ञा–बुद्धि जिसकी ऐसे गृहस्थके जो उन गृह क्षेत्रादिक उपधियों-परिग्रहोंमें "ये मेरे हैं " ऐसा संकल्प लगा रहता है उसके कारण ही वह उनके रक्षण अर्जन तथा संस्कारादिके करनेमें निरंतर पुनः पुनः दुश्चेष्टाएं किया करता है। यदि ये परिग्रह-गृहादिक पहलेसे पासमें होते हैं तब तो ये नष्ट न हो जाय या अपने हाथसे चले न जाय इस बातकी सावधानी रखता है। और यदि पहलेसे प्राप्त नहीं होते तो उनके प्राप्त करनेकेलिये प्रयत्न किया करता है। तथा प्राप्त होजानेपर अनेक प्रकारसे उनका संस्कार किया करता है। कभी झाडता कभी सींचता कभी लीपता कभी पोतता और कभी उनकी मरम्मत करता है। इस प्रकार सदा उनके समालने में ही लगा रहता है । और इन क्रियाओंके पुनः पुनः करनेमें जो दुःखोंके उद्गारसे अच्छी तरह भरे हुए हिंसादिक कर्म होते हैं उनमें अच्छी तरह और नाना प्रकारसे आमक्त होकर उस अनिर्वचनीय पापका संचय करता है जो कि अत्यंत तक्षिण भी संसाररूप अग्निमें बडी ही कठिनतासे और चिरकालमें जाकर दग्ध हो सकता है । घोर नरकादिक दुर्गतियोंके दुखोंका अनुभव कराके ही वे आत्मासे विच्छिन्न होते हैं। चेतन और अचेतन परिग्रहों में जो राग द्वेषका सम्बन्ध लगा हुआ है वही अनादिकालीन अविद्या-अ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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