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________________ अनगार ४५१ ज्ञानका कारण है। फिर भी जो मनुष्य उन रागद्वेषों में ही प्रवृत्ति करता है उसके जो पुनः पुनः कर्मों का बंध हुया करता है उसका तिरस्कारपूर्वक निर्देश करते हैं: आसंसारमविद्यया चलसुखाभासानुबद्धाशया, नित्यानन्दसुधामयस्वसमयस्पर्शच्छिदभ्यासया । इष्टानिष्टविकल्पजालजाटिलेष्वर्थेषु विस्फारितः , क्रामन् रत्यरती मुहुर्मुहुरहो बाबध्यते कर्मभिः ॥ १३५ ॥ जीवोंके अविद्या - अज्ञान या विपर्यस्त बुद्धि जबसे संसार है तभीसे-अनादिकालसे लगी हुई है। इसके अभ्यास-निकटमें रहनेसे मनुष्योंको नित्य-सदातन आनन्द-प्रमोद या सुखानुभवरूपी सुधा-अमृतसे मधुर शुद्ध चिद्रूपकी प्राप्ति तनिक भी नहीं होती । यह अविद्या नित्य एवं वास्तविक आत्मिक सुखका अनुभव जीवोंको अंशरूपमें भी नहीं होनेदेती । किंतु इसके ठीक विपरीत चल-क्षणिक अथवा अनित्य सुखाभासों-इन्द्रियोंके विषयों अथवा आत्मासे सर्वथा पर पदार्थों के साथ उन जीवोंकी आशा - तृष्णाको संयुक्त करदेती है। इसके निमित्तसे ही संसारी जीव आत्मिक सुखसे पराङ्मुख हुए इन्द्रियजनित विषयों अथवा उसके साधनभूत परिग्रहोंमें सुखकी भावनासे तृष्णान्वित हुआ करते हैं । और यह विपर्यस्त ज्ञान ही संसारके चेतन और अचेतन पदार्थों में जो कि वस्तुतः न इष्ट हैं और न अनिष्ट हैं उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि उत्पन्न कराता है । क्योंकि इसके प्रसादसे ही' जीव किसी पदार्थको इष्ट और किसीको अनिष्ट समझने लगता है। जिनको इष्ट समझता है उनको प्राप्त करनेके लिये और जो प्राप्त हों तो उनका सदा संयोग बना रहनेकेलिये निरंतर चिंता किया करता है। और इसी प्रकार जिनको अनिष्ट समझता है उनकी सदा अप्राप्तिकेलिये हमेशह संकल्प विकल्प किया करता है। यह अज्ञान इन्ही विकल्पजालोंसे जटिल उक्त चेतन और अचेतन पदार्थोंमें प्रयत्नावेशको प्राप्त होनेकेलिये जीवोंको प्रेरित किया करता है । विकल्पजाल के विषयभूत इष्टानिष्ट पदार्थोकी क्रमसे प्राप्ति और अप्राप्तिकेलिये प्रयत्न करते रहनेकी अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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