SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनगार १५२ प्रेरणा किया करता है। जिससे कि प्रेरित हुआ वह जीव अहो बारबार रागद्वेषरूप परिणत होता और ज्ञानावरणादिक कर्मोंसे पुनः पुनः बंधको प्राप्त होता है। भावार्थ-बंधका कारण रागद्वेष है । चेतन और अचेतन परिग्रहके निमित्तसे हमेशह रागद्वेष हुआ करते हैं। अत एव परिग्रही जीवके कमोंका संचय भी प्रतिक्षण हुआ करता है। जैसा कि कहा भी है कि:-- कादाचित्को बन्धः क्रोधादेः कर्मणः सदा सङ्गात् । नातः क्वापि कदाचित् परिग्रहप्रहवतां सिद्धिः। क्रोधादिकके निमित्तसे कदाचित बंध हुआ करता है किंतु परिग्रहके निमित्तसे सदा ही हुआ करता है। यही कारण है कि जो परिग्रहरूपी ग्रहसे आविष्ट हैं उनकी कहीं भी और कभी भी सिद्धि-मुक्ति नहीं होसकती। __ यह मोहकर्म इतना प्रबल है कि असमयमें काललब्धिके विना तत्त्वज्ञानियोंके लिये भी जिसका जीतना अत्यंत कष्टसाध्य है । इसी बातपर विचार करते हैं: अध्याय महतामप्यहो मोहग्रहः कोप्यनवग्रहः। ग्राहयत्यस्वमस्खांश्च योऽहममधिया हठात् ॥ १३६ ॥ मोह-चारित्रमोहनीय कर्म ग्रहके समान है। जिस प्रकार ग्रहके निमित्तसे जीव विविध प्रकारकी कुचेष्टाएं किया करता है उसी प्रकार इसके निमित्तसे भी जीव अनेक प्रकारके विकारोंको प्राप्त होकर दुर्व्यवहार किया करता है। यह इतना दुर्निवार या चिर-आवेशरूप है कि जिसका निरूपण नहीं किया जा सकता । आचर्य है कि यह बडे-महापुरुषोंको भी पर और परकीय पदार्थों में क्रमसे अहंबुद्धि और ममबुद्धिके द्वारा जबर्दस्ती विपरीत ग्रह करादेता है। भावार्थ-दूसरे साधारण व्यक्तियोंकी बात क्या, छद्भस्थ गृहस्थ अवस्थामें अवस्थित तीर्थकर प्रभृति ९५२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy