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________________ अनगार कल्याणक या समवसरण या केवलज्ञानकी उत्पत्ति अथवा दीक्षा कल्याणक वा जन्म कल्याणकके स्थानको अहे च्छय्या और इसी प्रकार श्रमणोंके निषिद्धिका स्थानोंको साधुशय्या कहते हैं । इसके सिवाय सूत्रमें यह वचन जो कहा है कि: जन्तुघातानृतादत्तमैथुनेष परिग्रहे । . अष्टोत्तरशतोच्छ्रासाः कायोत्साः प्रकीर्तिताः । अर्थात् -प्राणिपीडन अनृतवचन अदत्तग्रहण अब्रह्म या मच्छरूप परिणामोंके हो जानेपर एक सौ आठ उच्छास युक्त कायोत्सर्ग धारण करना चाहिये । सो यह कथन भी च शब्दसे संग्रहीत हो जाता है। व्रतारोपणी आदि प्रतिक्रमणाओं समय कायोत्सर्गक छासों की संख्या कितनी होनी चाहिये सो बताते हैं: या व्रतागेपणी सार्वातीचारिक्यातिचारिकी। औत्तमार्थी प्रतिक्रान्तिः सोच्छासैगहिकी समा ॥ ७४ ।। व्रतारोपणी सर्वातीचारी आतिचारिकी और औंत्तमार्थी प्रतिक्रमणाओं के उच्छ्रास आन्हिकी प्रतिक्रमणाके समान ही हुआ करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार देवमिक प्रतिक्रमण करनेमें एक सौ आठ उच्छासोंके द्वारा कायोत्सर्ग धारण किया जाता है उसी प्रकार व्रतारोपणी आदि प्रतिक्रमणाम भी एकसौ आठ उच्छासोंका ही कायोत्सर्ग हुआ करता है। इस प्रकार कायोत्सर्ग के उच्छापोंकी संख्या बताकर अब यह बताते हैं कि दिनरातमें स्वाध्यायादिके विषय में कुल कायोत्सर्ग कितने कितने हुआ करते हैं: खाध्याये द्वादशेष्टा षडुन्दनेष्टौ प्रतिकमे । कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचरा : ॥ ७५ ॥ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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