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________________ प्रनगार समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ।। ३३२ जिसके वात पित्त और कफ समान हैं तथा जिसकी अग्नि समान है और जिसकी धातु तथा मलकी क्रियाएं भी समान एवं जिसके आत्मा इन्द्रिय और मन सदा प्रसन्न रहते हैं उस मनुष्यको स्वस्थ समझना चाहिये । किंतु प्रकृतमें स्व-अपने स्वरूपमें ही स्थित होने या रहनेवालेको जो परद्रव्यके सम्बन्धसे सर्वथा रहित है उसको-स्वस्थ कहते हैं। ऐसा अर्थ समझना चाहिये । अत एव जो समस्त परद्रव्योंसे सम्बन्ध छोडचुका है ऐसे साधुको हास्य कषाय इस तरहसे छोडदेनी चाहिये जिस तरहसे कि लोग कफको छोडदेते हैं । क्योंकि कफ-श्लेष्माकी तरह हास्य भी जाड्य और मोह-मूछा आदिको उत्पन्न करनेवाला है। इसी प्रकार लोभको आमकी तरह अत्यंत दुर्जय विकार समझ कर, और भयको वातविकारके समान मनमें विप्लव पैदा करदेनेवाला समझकर तथा क्रोधको पित्तकी तरह अत्यंत संताप उत्पन्न करनेवाला समझकर दूर करदेना चाहिये । ऐसा करनेपर ही वह मुमुक्षु पूर्णतया स्वस्थ हो सकता है । कफादिकके उदाहरण देकर हास्यादिके त्याग करनेका जो उपदेश दिया है. उससे यह अभिप्राय भी समझलेना चाहिये कि साधुको इन बाह्य विकारोंसे भी रहित होना चाहिये । क्योंकि व्याधिरहित होकर ही वह आत्मपदका साधन अच्छी तरह कर सकता है । अध्याय १- आमाशयको प्राप्त दूषित रसको आम कहते हैं । यथाः ऊष्मणोल्पबलत्वेन धातुमान्द्यमपाचितम् । दुष्टमामाशयगतं रसमामं प्रचक्षते । कोई कोई अतिदूषित वात पित्त कफके परस्परमें मिलनेसे आमकी उत्पत्ति मानते हैं । यथाः - अन्ये दोषेभ्य एवातिदुष्टेभ्योन्योन्यमूर्छनात् । कोद्रवेभ्यो विषस्येव वदन्त्यामस्य संभवम् ॥ ३३२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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