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________________ बनगार चारित्रको ही ऊर्जित करनेकेलिए जो उद्यम किया जाता है उसको तप कहते हैं । इस सम्यश्चारित्रकी आराधनाके निमित्तसे पूर्वकालमें इस भरतक्षेत्रमें भी जो अपायरहित पदको प्राप्त कर चुके हैं उनसे सांसारिक क्लेशके उच्छेदकी याचना करते हैं: ते केनापि कृताऽऽजवंजवजयाः पुंस्पुङ्गवाः पान्तु मां, तान्युत्पाद्य पुरात्र पञ्च यदि वा चत्वारि वृत्तानि यैः । मुक्तिश्रीपरिरम्भशुम्भदसमस्थामानुभावात्मना, केनाप्येकतमन बीतविपदि स्वात्माभिषिक्तः पदे ॥ १७९॥ जिन्होंने इस दुःषम कालसे पूर्वके युग-चतुर्थ काल और इसी भरत क्षेत्रमें उपर्युक्त पांचो संयमोंको अथवा चारको उत्पन्न करके या धारण करके शुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा एक-अभिन्न ही किंतु अशुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा रत्नत्रयरूप आत्माके द्वारा संसारका सर्वथा नाश करदिया और जिन्होंने उक्त उत्पन्न संयमोमेंसे मोक्षलक्ष्मीके आलिङ्गनसे शोभमान असाधारण शक्तिके माहात्म्यरूप और अत्यंत उत्कृष्ट किसी भी एक-अनिर्वचनीय भेदके द्वारा अपनी आत्माको विपत्तिरहित --मोक्षस्थानमें प्रतिष्ठित करदिया वे पुरुषोत्तम मेरी संसारके व्यसनोंसे रक्षा करें। मावार्थ-मोक्षकी सिद्धि यद्यपि यथाख्यात संयमसे ही होती है अन्यसे नहीं | फिर मी ब्यबहारसेवकअणि मांडनेके पूर्व जो संयम रहता है उससे भी उसकी सिद्धि कही जाती है। अत एव यहाँपर किसी भी एक संयमके द्वारा आत्माको निर्वाणपदमें उपस्थित करलेना किंतु अशुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा रत्नत्रयात्मक और शह निश्चय नयकी अपेक्षा अभियात्माके ही द्वारा संसारका नाश होना बताया है।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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