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________________ बनगार ५१० बध्याय 2 का पालन किया करता है। क्योंकि उसको सर्वथा संयमका अभाव इष्ट नहीं है । इसी तरह जो साधु किसी प्रकार से बाह्य द्रव्यहिंसारूप अथवा अन्तरङ्ग भावहिंस रूपमें व्रतोंका भंग होज नेपर आगमके अनुसार उनका पुनः उपस्थापन कर उसी छेदोपस्थापन नामके दूसरे संयमको धारण करता है, ऐसे वर्तमानकालीन साधुओं में प्रधान संयमीको मैं नमस्कार करता हूं । भावार्थ- संयम के पांच भेद आगममें बताये हैं- सामायिक छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धि सूक्ष्ममापराय और यथाख्यात । इनमें से आजकल यहांपर - इस दुःषमकाल और भरतक्षेत्र में मुनियोंके आदिके दो ही संयम हो सकते हैं। अत एव जो मोक्षमार्गमें विहार करता हुआ इन दोनो ही संयमों का पालन करता है उसको आजकल श्रमणोत्तम समझना चाहिये। मैं भी उसको नमस्कार करता हूं । सामायिक संयमका स्वरूप ऊपर लिखा जा चुका है कि सम्पूर्ण सावद्य योगके त्यागको सामायिक कहते हैं। और इसमें सब मूलगुणोंका सङ्ग्रह हो जाता है । सामायिकके ही छेदो विकल्पों पांच महाव्रतों और उ नके परिकरूप तेईस मूलगुणोंमें अनभ्यासादिके कारण प्रमाद होनेपर उनमें पुनः अपनेको उपस्थित करनेका नाम छेदोपस्थापन संयम है। सामायिक में अशक्त हुआ श्रमण इस संगमको धारण करता है। इसकी विधि इस प्रकार है कि जो मुमुक्षु श्रमण होना चाहता है वह पहले यथाजातरूपके धारकपनेके साधक तथा परमगुरु श्री अर्हद्भट्टारक अथवा तत्कालीन दीक्षाचार्य के द्वारा दिये हुए उपदिष्ट बहिरंग और अन्तरङ्ग लिङ्गको धारण करता है और सम्मानपूर्वक उसमें तन्मय होता है। यहां यह बात भी समझलेनेकी है कि यद्यरि लिंग कोई दीयमान वस्तु नहीं है - वह स्वतः सिद्ध है। फिर भी परमगुरु श्री अर्हद्भट्टारकके द्वारा अथवा तत्कालीनताकी दृष्टिसे या विचार किया जाय तो दीक्षाचार्य के द्वारा उसके ग्रहण करनेके विधानका प्रतिपादन किया जाता है । अत एव व्यवहारकी अपेक्षा - उपदेशकी अपेक्षा से उसको दीयमान कहते हैं । इस दिये हुए लिंगको आदान क्रियाके द्वारा BMW MO膠& M盤勝&&&a«勝aoGD G EGG ५१०
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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