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________________ बनगार धारण करने के बाद उम श्रमण के भाव्यभावक भावसे वो स्व और परक विभाग इस तरहमे प्रवृन होता है जिप. से कि आत्मा संवलनको और पर पदार्थ प्रत्यस्तमनको प्राप्त होन लगता है, उसमे वः सर्वस्व का दान-उपदंश करनेवाले उन मूल उत्तर और परमगुरुओंको नमस्क्रियाके द्वारा सम्भावित बगकर भावतः उनकी स्तुति और बन्दना करने में अत्यंत लीन हो जाता है । इसके बाद मस्त सावध योगका प्रत्याख्यान ही सर्वोत्कृष्ट महाव्रत है इस श्रवणरूप श्रुतज्ञानके द्वाग, जब कि वह अपनी आत्माका-समयद्वारा-आत्मस्वरूपमें लीन रहनेका अनुभव कर रहा हो, सामायिक मंयमपर आरोहण करता है। इसके बाद जब कि वह प्रतिक्रमण आलोचनके प्रत्याख्यानरूप क्रियाओं के श्रवणरूप श्रुतज्ञानक द्वारा अपनी अत्मा में तीन कालमम्बंधी कर्मों पृथक होने का-"भेग यह आत्मा कालिक कमोसे रहित हो रहा है" एपा अनुभव कर रहा हो उम समयमेवह भूतकाल में उत्पन्न हुए किंतु वर्तमान में अनुपस्थित काायक वाचिक और मानसिक कोंमे रहित अवस्थाका आगेहण करता है। इसके बाद जब वह स्त अवद्यकों के घर शरीरको भी छोडकर मर्वोत्कृष्ट यथाजातरुप-नाग्न्य स्वरूपका एका ग्रतामे अवलम्बन लेकर अवस्थित होने लगता है उस समय उसको :पस्थित कहते हैं । और उपस्थित होनेपर जब कि वह सम्पूर्ण विषयोंमें समदृष्टिको धारण करने लगता है उस समय उमको साक्षात् श्रमण कहते हैं। इस प्रकार सामायिकके छेदों विकल्पोंमें अथवा उनके द्वाग अपनी आत्माके स्वरूपको उपस्थित करनेवाले का नाम ही दोपस्थापक है। जैसा कि प्रवचनमारकी चूलिकामें भी कहा है कि: जह जादरूखजाद उप्पाडिद केसमंसुगं सद्ध । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं ववदि लिङ्गं । मुच्छारंभविजुत्त जुत्त उवजोगजोगसुद्धीहिं। लिंग ण वगवेक्वं अपुणब्भवकारण जेण्हं । भादाय तं च लिंग गुरुणा परमेण तं णमंसिता । बध्याय १भाव्य-पर स्वरूप और भावक-आत्मा ।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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