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________________ अनगार अपेक्षा न करके निराकुलतया इनके धारण करनेको निर्वाह कहते हैं। इसी प्रकार संसारसे भीत रहनेवाले आराधकके इनके पूर्ण होजानेको सिद्धि कहते हैं । और परीषह तथा उपसर्गोके उपस्थित रहनेपर भी उनसे चलायमान न होकर इनके अंततक पहुंचा देनेको-क्षोभरहित होकर मरणान्त पहुंचा देनेको निस्तीणि कहते हैं। सम्यक्त्वादिकमें लगनेवाले अतीचारोंको बताते हैं:शङ्कादया मला दृष्टेय॑त्यासानिश्चयौ मतेः। वृत्तस्य भावनात्यागस्तपसः स्यादसंयमः ॥ ९७ ॥ शङ्का आदिक (शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्यदृष्टिसंस्तव ) सम्यग्दर्शनके अतीचार हैं। संशय विपर्यय अनध्यवसाय ये तीन सम्यग्ज्ञानके दोष हैं। एक एक व्रतकी जो पांच पांच भावनाएं बताई हैं जिनका कि आगे चलकर वर्षन करेंगे उनका छोडदेना सम्यक् चारित्रके अतीचार हैं। इसी प्रकार प्राणी और इन्द्रियोंमें संयम धारण न करना तपका अतीचार है। “ उद्यातादिकके द्वारा मोक्षमार्गका जो आराधन करना है" ऐसा पहले कहा गया है । अत एव आराधनाका लक्षण यहां बताते हैं: वृत्तिर्जातसुदृष्टयादेस्तद्गतातिशयेषु या। . उद्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥ ९८ ॥ जिसके सम्यग्दर्शनादिक परिणाम उत्पन्न हो चुके हैं ऐसे पुरुषकी उन सम्यग्दर्शनादिकमें रहनेवाले अतिशयों अथवा उद्योतादिक विशेषोंमें जो वृत्ति उसीको दर्शनादिककी भक्ति कहते हैं। और इस भक्तिका ही नाम आराधना है। अ.ध.१४ - बध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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