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बनगार
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अद्धानगन्धसिन्धुरमदुष्टमुद्यदवगममहामात्रम् ।
धीरो व्रतबलपरिवृतमारूढोरीन् जयेत्प्रणिधिहेत्या ॥ ९५ ॥ श्रद्धानको गन्धहस्तीके समान समझना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार हस्ती अपने पक्षमें बल उत्पन्न करता और परपक्षका उपमर्दन करता है। इसी तरह ज्ञानको नियन्ता समझना चाहिये क्योंक पीलवानकी तरह वह भी, जिससे अभीष्टकी सिद्धि हो सके ऐसे उपाय-मार्गका दिखानेवाला है। चारित्रको सेनाके समान समझना चाहिये, क्योंकि वह भी विरुद्ध पक्षके बलको रोकता व नष्ट करता है । इस प्र. कार जिसका ज्ञानरूपी नियन्ता-पीलवान उल्लासको प्राप्त हो रहा है और जिसको चारित्ररूपी सैन्यने चारो तरफसे घेर रक्खा है, ऐसे निदोर्ष सम्यग्दर्शनरूपी गन्धहस्तीपर आरूढ हुए धीर-कातरतारहित पुरुषको समाधि-ध्यानरूपी शस्त्रके द्वारा प्रतिपक्षी कोंका निग्रह करना चाहिये-उनपर विजय प्राप्त करनी चाहिये।
उक्त उद्योतादिकका लक्षण बताते हैं:दृष्टयादीनां मलनिरसनं द्योतनं तेषु शश्वद्,वृत्तिः खस्योद्यवनमुदितं धारणं निस्पृहस्य । निर्वाहः स्याद्भवभयभृतः पूर्णता सिद्धिरेषां,
निस्तीणिस्तु स्थिरमपि तटप्रापणं कृच्छ्रपाते ॥ १६ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चारो आराधनाओंमें लगनेवाले मलोंके दूर करनेको उद्योत कहते हैं। इन्हीमें इनके आराधकके नित्य एकतान होकर रहनेको उद्यव कहते हैं। तथा लाभ पूजा ख्याति आदिकी