SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 610
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमगार हैं- उपभोगके योग्य नहीं रहते। इस प्रकार तत्त्वदृष्टिमे ये विषय आपातमात्र रमणीय किंतु परिपाककटु और तृष्णासंतापके जनक तथा क्षणभंगुर ही हैं। हाय फिर भी मालुम नहीं, ये अन्धे-तत्त्वस्वरूपसे अनभिज्ञ लोक. इन विषयों के लिये अपने सन्मुख विपत्तियोंको क्यों बुलाते हैं ? जैसा कि कहा भी है कि आरम्भे तापकान् प्राप्तावऽतृप्तिप्रतिपादकान् । अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥ जो आरम्भमें संताप करनेवाले हैं और जो प्राप्त होकर भी अतृप्ति-असंतोषको जाहिर करनेवाले हैं तथा जिनका अन्तमें भी छोडना कठिन है ऐसे आदि मध्य और अन्त सर्वदा ही आत्माको संक्लिष्ट बनानेवाले इन विषयोंका, ऐसा कौन विवेकी होगा जो कि सेवन करना चाहे । ये विषय इस लोक और परलोक दोनों ही जगह आत्माकी चैतन्यथाक्तिको आच्छादित करने वाले हैं, इस बातको प्रकट करते हैं: किमपीदं विषयमयं विषमतिविषमं पुमानयं येन । प्रसभमभिभूयमानो भवे भवे नैव चेतयते ॥ १४ ॥ यह विषयरूपी विष अपूर्व अथवा अलौकिक ही है जो कि अतिशय विषम--अत्यंत कष्टकर और ऐसा विलक्षण है कि जिससे सहसा मर्छित हुआ यह जीव भवभवतक-अनन्त पयर्यायोंमें भी सचेत नहीं हो सकता। भावार्थ--स्वसंवेदनका अनुभव करनेवाला भी जीव इन विषयोंके प्रसादसे ऐसे वैभाविक भावोंको प्राप्त हो जाता है कि जिससे वह फिर अनन्त भवतक भी ज्ञानचेतनाका लाभ नहीं कर सकता । अत एव जो साधु ज्ञानचे. तनारूप अमृतका पान करनेकी इच्छा रखते हैं उनकेलिये इस विषयरूप विषसे विरत होना ही श्रेयस्कर है। ऊपर अपहृतसंयमको उत्तम मध्यम और जघन्य इस तरह तीन प्रकारका बताया है। उसमेंसे उत्तम | प्रकारसे इन्द्रिय परिहाररूप अपहृत संयमको भावनाका विषय बनानेके लिये उपदेश देकर मध्यम और ज. बघ्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy