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________________ अनगार १९९ अध्याय धन्य रूपसे भी उसकी भावना करनेकेलिये उपदेश देनेका उपक्रम करते हैं: साम्यायाक्ष जयं प्रतिश्रुतवतो मेऽमी तदर्थाः सुखं, लिप्सोर्दुःखविभीलुकस्य सुचिराभ्यस्ता रतिद्वेषयोः । व्युत्थानाय खलु स्युरित्यखिलशस्तानुत्सृजेद् दुरत,— स्तद्विच्छेदन निर्दयानथ भजेत्साधून्परार्थोद्यतान् ॥ ४५ ॥ दु:खोंसे अतिशय डरनेवाले और सुखको प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले तथा उपेक्षासंयमको सिद्ध करकेलिये इन्द्रियविजय स्वीकार करनेवाले - इन्द्रियों को वश करनेमें प्रवृत्त हुए मेरे निकटवर्ती ये इन्द्रियों के विषय क्षणमात्रमें राग या द्वेषको उत्पन्न कर सकते हैं । अत एव इन सम्पूर्ण विषयों को दूर ही से छोडदेना उचित है । अथवा जो इस प्रकार से विषयोंके छोडदेनेमें असमर्थ है उसको उन चिरकाल के दीक्षित साधुओं की सेवा करनी चाहिये जो कि इन विषयोंका विच्छेद करने में अत्यंत निर्दय और दूसरोंका प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये सदा उद्यत रहा करते हैं । भावार्थ- संयम के उत्तम मध्यम जघन्य तीनों भेदों का स्वरूप पहले लिखा जा चुका है; जिसमेंसे उत्तम भेदका ऊपर अच्छी तरह वर्णन किया जा चुका है। जिसमें कि अन्तर्वृत्तिके द्वारा ही आत्माको विषयोंसे पृथक् रहना दिखाया गया है। किंतु यहांपर पहले वाक्यमें मध्यम संयमका और दूसरे वाक्यमें जघन्य संयमका उपदेश है क्योंकि पहले वाक्यमें बाह्य वृत्तिके द्वारा आत्मासे विषयोंके दूर करनेका उपदेश है और दूसरे वाक्य में गुरुओंके निमित्त उनको पृथक् करनेका उपदेश है । स्वयं ही विषयों को दूर करनेरूप मध्यम अपहृतसंयमका पालन करनेकेलिये साधुओंको उद्यत करते हैं:मोहाज्जगत्युपेक्ष्येपि छेत्तुमिष्टेतराशयम् । तथाभ्यस्तार्थमुज्झित्वा तदन्यार्थं पदं व्रजेत् ॥ ४६ ॥ ५९९
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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