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जनगार
सम्यक्त्वकी सामग्रीकी प्रशंसा करते हैं - तद् द्रव्यमव्यथमुदेतु शुभैःस देशः, संतन्यतां प्रतपतु प्रततं स कालः। भावः स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण,
प्रसौति तत्त्वरुचिमाप्तगवी नरस्य ॥ १३ ॥ जिन भगवान्के शरीरकी प्रतिमा आदि द्रव्य अवाधरूपसे उदित हों-अपना कार्य करनेके लिये शक्तियोंको उद्भत करें। समवसरण या चैत्यालय प्रभृति देश-स्थान शुभ कृत्यों व गर्भादि कल्याणकोंके महोत्सवोंसे भले प्रकार पूर्ण रहें। तीर्थकरोंके समय अथवा सम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेके योग्य अर्धपुद्गल परिवर्तन कालकी शक्ति सदा अव्याहत बनी रहे। इसी प्रकार सम्यक्त्वके उत्पन्न होने में कारणभूत अधःप्रवृत्तकरण आदि आत्माके भाव सदा समृद्धिको प्राप्त हों; जिनके कि अनुग्रहसे आमगवी-परापर गुरुओं की वाणी जीवको तत्चोंमें रुचि उत्पन्न करादेती है। भावार्थ-जिस प्रकार लोकमें गौ खल वगैरह योग्य द्रव्यको पाकर अतिशयंको प्राप्त कर लोगोंको दूध दिया करती है उसी प्रकार परापर गुरुओंकी देशना-वाणी भी उक्त द्रव्यादिकी सहायतासे सातिशय होकर जीवोंको सम्यग्दर्शन उत्पन्न कराती है। अत एव देशनामें अतिशय उत्पन्न करनेवाले द्रव्यादि कारणोंकी शक्तियां सदा उद्भत रहें।
यहांपर तत्त्वरुचि-शब्दका अर्थ 'तत्त्वोंकी इच्छा' ऐसा नहीं है। क्योंकि इच्छाके कारणभूत मोहकर्मका जहाँपर उदय नहीं पाया जाता ऐसे उपांतकषाय प्रभृति गुणस्थानोंमें अथवा मुक्तात्माओंमें बह-इच्छा नहीं पाई जाती. अत एव तत्त्वरूचि आत्माके उस स्वरूपको कहते हैं जो कि विपरीत अभिनिवेशसे शून्य और पर तथा अपर वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपके श्रद्धानरूप है।
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अध्याय