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________________ १२८ ARTANDONESIMISSISATERIALSVERTREET सप्ताचिकी उपमा दी है। इससे किसी किसीने जो मिथ्यात्वके सात भेद माने हैं सो भी इसमें अन्तर्भूत हो जाते हैं। यह बात सूचित की है । सात भेदोंके नाम इस प्रकार हैं "ऐकान्तिकं सांशयिकं च मुढं स्वाभाविक वैनयिकं तथैव । व्युद्ग्राहिक तद्विपरीतसंज्ञं मिथ्यात्वभेदानवबोध सप्त ॥" ऐकान्तिक, सांशयिक, मूढ, स्वाभायिक, वैनयिक, व्युदाहिक, अव्युग्राहिक, इस तरह मिथ्यात्वके सात भेद हैं। अथवा तीन दर्शन मोहनीय और चार अनंतानुबंधी कषाय ये सातो ही प्रकृति सम्यक्त्वका घात करती हैं, अत एव इस अपेक्षासे भी मिथ्यात्वके सात भेद होते हैं। मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी भले प्रकार पहचान हो सके इसलिये संक्षेपमें दोनोंका लक्षण बताते हैं ग्रासाद्यादीनवे देवे वस्त्रादिग्रन्थिले गुरौ । धर्मे हिंसामय तडीमिथ्यात्वमितरेतरत् ॥ १२ ॥ जिनमें क्षुधा राग द्वेष मोह आदि ऐसे दोष पाये जाते हैं जिनका कि ग्रासादिके द्वारा-होनेवाले भोजन कवलाहारको देखकर तथा स्त्री शस्त्र अक्षसूत्रका धारण इत्यादि कार्योंको देखकर अनुमान किया जा सकता है उनको कुदेव कहते हैं । वस्त्र दण्ड पात्र आदि परिग्रहके धारण करनेवालोंको कुगुरु कहते हैं। जिसमें कि प्राणियोंके वधको कर्तव्यतया बताया गया है उस आगमको कुधर्म कहते हैं । इस प्रकार दूषित देवमें परिग्रही गुरुमें और हिंसामय धर्ममें समीचीन देव गुरु धर्मकी बुद्धि रखना इसको मिथ्यात्व कहते हैं। और इससे विपरीत समीचीन देव गुरु धर्ममें-निर्दोष देव निग्रंथ गुरु और अहिंसामय धर्ममें देव गुरु धर्मकी श्रद्धा रखनेको सम्यक्त्व कहते हैं। - अध्याय १२८
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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