SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार १२७ क्रियावादी अक्रियावादी विनयवादी और अज्ञानवादी इन गृहीत मिथ्यादृष्टियोंके तीनसौ त्रेसठ भेदं हैं। वस्तुतत्वमें स्वभावतः जो अनादिकालसे अश्रद्धा चली आती है उस अग्रहीत मिथ्याचको तत्वारुचि कहते हैं । यथा "एकेन्द्रियादिजीवानां घोराज्ञान विवार्तिनाम् । तीव्रसंतमसाकारं मिथ्यात्वमगृहीतकम्” इति ।। घोर अज्ञानमें पडे हुए एकेन्द्रियादि जीवोंके जो तीव्र अन्धकारके समान अश्रद्धान है उसको अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। जो मिथ्यात्वके दूर करनेमें तत्पर रहता है उसकी प्रशंसा करते हैं-- यो मोहसप्तार्चिषि दीप्यमाने चेंक्लिश्यमानं पुरुषं झषं वा । उद्धृत्त्य निर्वापयतीद्धविद्यापीयूषसेकैः स कृती कृतार्थः ॥ ११ ॥ जलती हुई मोह-मिथ्यात्वरूप सप्ता:-अग्निमें या उसके द्वारा अत्यंत और बारम्बार संतप्त हुए मत्स्योंके समान पुरुषोंको जो विद्वान उससे निकालकर प्रकाशमान प्रमाण नय प्रभृति अधिगमरूपी सुधाका सेक --सिञ्चन कर शांत बनाते हैं वे ही महाभाग सफलमनोरथ और धन्य हैं। . सप्ताचि नाम अग्निका है। क्योंकि उसमें सप्त-सात आर्चि-किरणें रहती हैं-नीचकी तरफको छोडकर सातो दिशाओंमें उसकी सात ज्वालाएं निकला करती हैं। इसी अर्थको ध्यानमें रखकर यहांपर मोहको अध्याय १ इसका विशेष स्वरूप ज्ञानदीपिकामें देखना चाहिये।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy