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________________ जनगार हैं और उससे अपने व्यसनोंको पुष्ट किया करते हैं। भावार्थ-जिन पुरुषोंको परमार्थ और यथार्थ देव गुरु शास्त्रका श्रद्धान नहीं है ऐसे लोक वञ्चना आदि अनेक उपायोंसे अपने व्यसनोंको ही पुष्ट किया करता हैं --- प्रकारांतरसे मिथ्यात्वके भेदोंको गिनाते हुए यह बात बताते हैं कि वह-मिथ्यात्व सर्वदा और सर्वत्र जीवका अपकार ही करता है तत्त्वारुचिरतत्त्वाभिनिवेशस्तत्त्वसंशयः। . मिथ्यात्वं वा क्वचित्किचिन्नाश्रयो जात तादृशम् ॥१०॥ तत्त्वमें अरुचि, अतत्वका अभिनिवेश-श्रद्धान-आग्रह या रुचि. तथा तत्वका संशय, इस तरह मिथ्यात्व तनि प्रकारका. है इन तीनोंमेंसे एक भी ऐसा नहीं है जो कि कहीं भी और कभी भी जविका जरा भी कल्याण कर सके । अतएव इनमेंसे किसका भी आश्रय लेना उचित नहीं है। क्योंकि संसारमें मिथ्यात्व या उसके किसी भेदके समान जीवका अकल्याण करने वाला कोई भी पाप नहीं है। जिनोक्त तच ही ठीक हैं-मोक्षके कारण हैं या अन्य ? इस तरहकी जिसमें ससीचीन या मिथ्या किसी भी तरहकी प्रतीति इकतर्फा न होकर चलायमान प्रतीति रहती है। उसको तत्त्वसंशय कहते हैं; जैसा कि पहले भी बताया गया है। दूसरोंके उपदेशसे उत्पन्न होनेवाले गृहीत मिथ्यात्वको अतत्त्वाभिनिवेश कहते हैं। इसके ३६३ भेद हैं जैसा कि आगममें बताया गया है “भेदाः क्रियाऽक्रियावादिविनयाज्ञानवादिनाम् । गृहीतासत्यदृष्टीनां निषष्टित्रिशतप्रमाः ॥” इति । बध्यार
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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