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________________ अनगार एवं सिद्धान्त वेत्ता आचार्यकी वंदना क्रमसे लघुसिद्धमाक्त श्रुतमक्ति और आचार्यमक्तिके द्वारा करनी चाहिये। धर्माचार्यकी वन्दना-उपासना करनेसे जो माहात्म्य प्राप्त होता है उसकी प्रशंसा करते हैं: यत्पादच्छायमुच्छिद्य सद्यो जन्मपथक्लमम् । वर्वष्टि निवृतिसुधां सूरिः सेव्यो न केन सः॥ ३२ ॥ जिनके चरणोंकी छाया मुक्तिरूपी अमृतकी वृष्टि करके तत्काल जीवोंको संसार मार्गके संतापसे रहित बना देती है ऐसे आचार्यकी सेवा कौन नहीं करेगा! भावार्थ-कृतकृत्यताके द्वारा प्राप्त होनेवाले अथवा कृतकृत्यतास्वरूप संतोषको निवृति कहते हैं। इस संतोषको अमृतके समान समझना चाहिये । क्योंकि इसके प्राप्त होते ही जीव जन्ममरणरूपी संसारके मार्गमें भ्रमण करनेसे प्राप्त हुए संताप और क्लेशसे छूट जाता तथा परम आल्हादको प्राप्त होता है। किंतु यह अवस्था आचार्यों के चरणका आश्रय लिये बिना प्राप्त नहीं हो सकती । अत एव आचार्य चरणोंकी सेवा सर्वोत्कृष्ट फलको देनेवाली है ऐसा समझकर सभी मुमुक्षु साधुओंको उनकी उपासना करनी चाहिये । अपनेसे बडे साधुओंकी वन्दना करनेसे जो फल प्राप्त होता है सो बताते हैं: येऽनन्यसामान्यगुणाः प्रीणन्ति जगदजसा। तान्महन्महतः साधूनिहामुत्र महीयते ॥३३॥ जो साधु संसारके अन्य किसी भी जीवमें जो नहीं पाये जा सकते ऐसे महान् गुणोंके धारण करनेवाले और इन्द्रादिके द्वारा पूज्य हैं, तथा जगत्के जीवोंका परमार्थसे हित करनेवाले और अपने उपदेशादिके द्वारा भवआतापसे संतप्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाले हैं। ऐसे दीक्षाकी अपेक्षा अपनेसे बडे साधुओंकी पूजा करनेपर ही मुमक्ष साधु इस लोक तथा परलोकमें मानीवता-पूज्यताको प्राप्त हुआ करता है। अध्याय ८08
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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