SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार १४ प्रकारके दुःखोंसे पूर्ण भी संसाररूपी वनमें भ्रमण कर रहे हैं और दुःख भोग रहे हैं। " इस प्रकार विचित्र दुःखोंसे त्रस्त हुए इन [ अपने हृदयंगत ] दीन, तीन जगत्के जन्तुओंका मैं एकसाथ उद्धार कर, इस दुःखपूर्ण संसाररूपी बनसे छूटनेके उपायका उपदेश देकर इनका उपकार करूं?” इस भावनाको तीर्थकृत्त्वभावना कहते हैं । यह मुख्यतया अपायावचय नामके एक धर्मध्यानके ही भेद है । यही बात गर्भान्वयक्रियाका वर्णन करते हुए आगममें भी कही है मैनाध्ययनवृत्तत्वं तीर्थकृत्तस्य भावना। गुरुस्थानाभ्युपगमो गणोपग्रहणं तथा ॥ इति । एक साथ ही तीन जगत्का अनुग्रह करनेकेलिये समर्थ होनेकी इस भावनामें उक्त दयाके पात्र प्राणियों के अभ्युद्धारकी बुद्धि इस प्रकारसे उत्पन्न होती है कि जिसके साथ ही साथ उनके दुःसह दुःखरूप दावानलकी ज्वालाओंके भभूकोंको देखकर हृदयमें उत्पन्न हुआ क्लेद आखोंसे निकली हुई अश्रुधारासे अभिव्यक्त हो जाता है। और इसीलिये इस बुद्धिसे बार बार आत्मामें उन्हींका विचार उत्पन्न होता है । आत्मस्वरूप और परम करुणासे अनुरक्त अन्तश्चैतन्य परिणामोंसे प्रतिक्षण बढनेवाले परोपकारके रस अथवा उससे उत्पन्न हुए हर्षके कारण ये भावनायें अपना विशेषरूपसे प्रकाश करती हैं। इस प्रकारकी भावनायें दूसरे साधारण व्यक्तियोंके नहीं पाई जा सकती क्योंकि अनगारकेवलित्वके योग्य भावना करनेवालोंके इन भावनाओंका उत्पन्न होना असंभव है। इनके दर्शनविशुद्धि आदिक सोलह भेद हैं। ये एक प्रकारके मनोगत संस्कार हैं जो कि परम पुण्य तीर्थकर नामकर्मके बन्धकेलिये कारण हैं । इन भावनाओं के बलसे संचित, किंतु केवलज्ञानके साहचर्यको पाकर उदयको प्राप्त होनेवाले तीर्थकरनामक पुण्यकर्मविशेषसे ही उत्पन्न हुए वाक्यों-दिव्यध्वनिके द्वारा जो मोक्षमार्गकी जिज्ञासासे सभामें आये हुए भव्योंको उक्त मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं वे भगवान् अर्हन् हम त्राणार्थियोंकी रक्षा करें-अभ्युदय और निःश्रेयससे भ्रष्ट करनेवाले उपायरूप अपायोंसे हमको दूर रक्खें । स अध्याय १ श्री जिनसेन स्वाभिकृत महापुराणमें कहा है !
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy