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________________ अनगार ६७. आदिके समय भोजनके परित्यागको नित्य विधि और कनकावलि आदिमें वैसा करनेको नैमित्तिक विधि कहते हैं। जो विवेकी साधु हैं उन्हे उचित है कि वे अपनी शक्तिको न छिपाकर ऊपर लिखे अनुसार महान् फलकी साधक इन विधियों का पालन करते हुए अपने जीवन के सुदीर्घ मार्गको तय करें किंतु उन्हे उसका शेष भाग चतुर्विध आहारका परित्याग करके भक्तप्रत्याख्यान इङ्गिनी प्रायोपगमन मरण आदिमेंसे किसीके द्वारा ही व्यतीत करना चाहिये। अनशन तपमें विशिष्ट रुचि उत्पन्न कराते हैं:प्राञ्चः केचिदिहाप्युपोष्य शरदं कैवल्यलक्ष्म्याऽरुचन् , षण्मासानशनान्तवश्यविधिना तां चकुरुत्का परे । इत्यालम्बितमध्यवृत्त्यनशनं सेव्यं सदायैस्तनं. तप्त शुद्धयति येन हेम शिखिना मूषामिवात्माऽऽवसन् ॥ १९ ॥ जिस प्रकार मृषा-घरिया में पड़ा हुआ सुवर्ण विना अग्निके शुद्ध नहीं हो सकता। अग्निके द्वारा संतप्त होनेपर ही किट्ट कालिकादि दोषोंसे रहित हो सकता है। उसी प्रकार शरीरके भीतर पडा हुआ कर्ममलसे युक्त आत्मा विना तपके शुद्ध नहीं हो सकता । अनशनादि तपरूपी आनिसे संतप्त होनेपर ही द्रव्यकर्म और भावकर्म से रहित हो सकता है। इसी लिये तो विदेह क्षेत्रोंकी तो बात ही क्या, इस भरत क्षेत्रमें भी कर्मभूमिके प्रारंभमें बाहवलि प्रभृति कितने ही पूर्व पुरुषोंने एक एक वर्षतक उपोषित रहकर कैवल्यलक्ष्मी-अनन्तज्ञानादि चतुष्टयके द्वारा अपनेको उद्योतित किया। और कितने ही भगवान् आदीश्वर प्रभृति महापुरुषोंने चतुर्थसे लेकर पाण्मासिक तककी अनशनविधिरूपी वशीकरण मंत्र के द्वारा उस लक्ष्मीको अपने ऊपर उत्कण्ठित बनाया । अत एव वर्तमानमें भी सम्पूर्ण मुमुक्षुओंको इस अनशन तपका सदा पालन करना चाहिये । किंतु न सर्वथा उत्कृष्ट और न सर्वथा जघन्य, किंतु मध्यम दर्जेकी चर्याका आश्रय लेकर सदा उसका सेवन करना चाहिये । आहारकी अभिलाषा चार कारणोंसे हुआ करती है। अत एव उसका निग्रह उन कारणों के विरुद्ध
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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