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________________ अनगार ६२२ हे आत्मन् ! यह शरीर इतना अशुचि है कि यदि विधाता इसको बनाकर ऊपरसे इस दीखते हुए चमडेसे इसे आच्छादित न करदेता तो गृद्धांदिक जितने मांसभक्षी पक्षी हैं वे सब इसको अच्छी तरहसे चोथ डालते । जिस प्रकार भाई बन्धु आदि दायाद जन अविभाज्य-जिसका विभाग नहीं किया जा सकता ऐसी भी वस्तुके लिये आपसमें क्रोध और स्पर्धाके साथ लड लडकर खण्ड खण्ड करके उस वस्तुको ग्रहण करते हैं उसी प्रकार गृद्ध वगैरह पक्षी इस शरीरके लिये करते । इस प्रकार यद्यपि यह अशुचिपदार्थमय है फिर भी इसमें तू निवास करता है इसलिये यह पवित्र भी समझा जाता है । अतएव अत्यंत शुद्ध निज आत्मस्वरूपका अवलोकन करनेमें इस शरीरको अग्रेसर बनाकर सम्पूर्ण त्रिलोकीके लिये तीर्थस्वरूप विशुद्धिका कारण बना देना चाहिये ।। भावार्थ-यद्यपि यह शरीर स्वभावसे अपवित्र ही है किंतु तेरे सम्बन्धसे पवित्र भी है । अतएव ज्यों ज्यों तू पवित्र होता जायगा त्यों त्यों यह भी अधिकाधिक शुद्ध होता जायगा। जिस समय तू अत्यंत निर्मल निजात्म स्वरूका अवलोकन करने लगेगा उस समय तेरा यह शरीर भी परमौदारिक होकर समस्त संसारके लिये तीर्थरूप होजायगा। किंतु तेरा पवित्र होना भी इस शरीरके ऊपर ही निर्भर है । क्योंकि जिस उत्कृष्ट ध्यानके बलसे तुझे निज शुद्धात्माका साक्षात्कार हो सकता है उसकी प्राप्ति उत्तम संहननवाले शरीरसे ही हो सकती है। अत एव तुझे उसको तीर्थरूप बनाना ही उचित है। इस प्रकार निरंतर चिन्तवन करनेवाला साधु शरीरसे विरक्त होकर अशरीर अवस्था प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करने लगता है। . आस्रवके स्वरूपका विचार करने के लिये उसके दोषोंका चितवन करते हैं: युक्ते चित्तप्रसत्त्या प्रविशति सुकृतं तद्भविन्यत्र योग,द्वारेणाहत्य बहः कनकनिगडवद्येन शर्माभिमाने । मूर्छन् शोच्यः सतां स्यादतिचिरमयवेत्यात्तसंक्लेशभावे, यत्वंहस्तेन लोहान्दुकवदवसितच्छिन्नमर्मेव ताम्येत ॥ ७० ॥ अध्याय ६२२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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