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________________ घमेल AUTOurroupreETroupremASTERESPEPSIRAHMENTSXES भावार्थ --स्त्रियोंकी योनि बिल्कुल वैतरणी नदीके समान है जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। जब कि संसारके साधारण अज्ञानी जन इसको नहीं तर सकते और इंद्रियोंके उपसर्गोंको भी नहीं सह सकते तब यह किस तरह कहा जा सकता है कि वे नरकमें वैतरणीको तरने में क्षम हो सकेंगे और नारकियोंके उपद्रवोंको भा सह सकेंगे, कभी नहीं । वे अवश्य ही नारकियोंके द्वारा दिये गये दुःखोंको भोगते हुए वैतरणी में पडे पडे सडेंगे । इन दुःखोंसे इनके बचनेका उपाय तो यही है कि ये इस योनिनदीको तरकर पार होजाय-उसमें रमण करने की इच्छा ही न करें और इन्द्रियोंसे पराजित न होकर उनपर विजय प्राप्त करें। क्योंकि स्त्रियोंके अत्यंत जुगुप्स्य स्थानमें रमण करनेकी लोलुपता रखन। और इन्द्रियोंके ही पराधीन रहना नरकमें जानेका ही प्रयत्न करना है। इस प्रकार अशुचित्व भावनाका निरूपण करके अब क्रमानुसार वृद्ध पुरुषोंकी संगति करनेका पांच पद्योंमें व्याख्यान करना चाहते हैं। जिसमें पहले निरन्तर ही अपना कुशल-आत्महित चाहनेवाले मुमुक्षुओंको मोक्षमार्ग - रत्नत्रयका निर्वहण करनेमें निष्णात साधुओंकी परिचर्या-वैयावृत्यके अतिशयरूप करनेका उपदेश देते हैं: स्वानूकाङ्कशिताशयाः सुगुरुवाग्वृत्त्यस्तचेतःशयाः, संसारार्तिबृहद्भयाः परहितव्यापारनित्योच्छ्रयाः । प्रत्यासन्नमहोदयाः समरसीभावानुभावोदयाः, सेव्या: शश्वदिह त्वयातनयाः श्रेयःप्रबन्धेप्सया ॥ ९६ ॥ अध्याय १-सम्यग्दर्शनादिका उद्योतादि रूपसे आराधन करनेका निरूपण करते हुए निर्वहणका भी स्वरूप पहले लिखा जा चुका है।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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