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________________ बनगार के बदलेमें मंग तो उसको परिवर्तित करते हैं। ऐसा करने में भी दाताको संक्लेश होता है अत एव यह मी रनियोंकेलिये दोष ही है। यथाः-- श्रीदिभक्तादिभिः शालिभक्ताचं स्वीकृतं हि यत् । संयतानां प्रदानाय तत्परीवत मिष्यते ॥ निषिद्ध दोष और उसके भेदप्रभेदोंको बताते हैं:-- निषिद्धमीश्वरं भी व्यक्ताव्यक्तोभयात्मना । वारितं दानमन्येन तन्मन्येम त्वनीश्वरम् ॥ १५॥ २६२ जो चीज किसीके मना करनेपर भी मुनियों को आहारकेलिये दी जाय उसको निषिद्ध कहते हैं । इसके दो भेद हैं एक ईश्वर दूपरा अनश्वा । वस्तुके स्वामीसे निषिद्ध वस्तुको ईश्वर और जो वस्तुतः स्वामी तो नहीं है किन्तु अपने को स्वामी समझता है ऐसे पुरुषके द्वारा निषिद्ध हो उस वस्तु को अनीश्वर कहते हैं। स्वामीके तीन भेद हैं--व्यक्त अव्यक्त और उभय । जो अपने अधिकार अथवा रक्षणादि कार्यके करनेमें किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता ऐसे सबन्ध स्वतन्त्र अधिकारीको व्यक्त और जो दुसरेकी अपेक्षा रखनेवाला है उसको अव्यक्त कहते हैं । किन्तु जो व्यक और अव्यक्त दोनों प्रकार का कहा जा सकता हो अथवा ऐसे दो संयुक्त व्यक्ति हों तो उनको उभय कहते हैं। इसी प्रकार अनीश्वर दोपके भी ये तीन भेद होते हैं । अत एव व्यक्तेश्वरनिषिद्ध आदि निपिद्ध दोषके छह भेद हो जाते हैं। इस विषयका आचार टीकामें, ' "अणिरािष्टुं पुण दुविहं ईसरमहणीसरं च दुवियप्पं । पढमेस्सरसारखं वत्तावत्तं च संघाई।" इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए बहुत विशेष वर्णन किया है । किन्तु बुद्धिमान् लोक उस सम्पूर्ण व्या : १३२ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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