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जनगार
यत्र तत्र गृहिण्यादीन्मुक्त्वापि खान्यनिर्दयः।। न लयति दुर्गाणि कानि कानि धनाशया ॥७३ ॥
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...... माता पुत्र कलत्र आदिकोंको साथमें लेकर अथवा जहां कहीं भी परीक्षित या अपरीक्षित स्थानों में उPL न्हें रखकर खुदकेलिये और दूसरे सहाय करनेवाले परिजन तथा पशु आदिकलिये निर्दय वनकर- उनको व स्वयं
को क्षुधा पिपासा शीत उष्ण आदिके द्वारा पीडित कर धनकी आशासे नदी पर्वत जङ्गल समुद्र आदि कौनसे दुर्गम स्थान हैं कि जिनको यह गतवयस्क पुरुष नहीं लांघता फिरता! अर्थात् सभी दुर्गम स्थानों में यह जीव धनकी आशासे भटकता फिरता है। .. .... वृद्धि-व्याज आदिके द्वारा आजीविका करनेवालेके प्रति ग्लानि प्रकट करते हैं:
वृद्धिलुब्ध्याघमणेषु प्रयुज्यार्थान् सहासुभिः। .
तदापच्छङ्कितो नित्यं चित्रं बाधुषिकश्चरेत् ॥ ७४ ॥ ___ यह बडा आश्चर्य है कि वार्द्धषिक-ब्याज खाऊ आदमी भी जो कि वृद्धि-व्याजके लोभसे - कालांतरमें चलकर इस धनमें कुछ वृद्धि होजायगी इस आशासे अधमर्गौ-आसामियोंमें अपने प्राणोंके साथ साथ धनको रखकर उसपर आनेवाली आपत्तियोंसे सदा शंकित बना रहकर ही प्रवृत्ति करता है। क्योंकि जो अपने प्राणोंको
दूसरी जगह पहुंचा देता है वह जीव स्वयं प्रवृत्ति नहीं कर सकता; यही आश्चर्यका कारण है। अध्याय
सेवाकर्मकी निन्दा करते हैं:- . खे सद्वृत्तकुलश्रुते च निरनुक्रोशीकृतस्तृष्णया,