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________________ स्वं विक्रीय धनेश्वरे रहितवीचारस्तदाज्ञावशात् । वर्षादिष्वपि दारुणेषु निबिडध्वान्तासु रात्रिष्वपि, . व्यालोग्रारवटवीष्वपि प्रचरति प्रत्यन्तकं यात्यपि ॥ ७५॥ धर्मः . बनगार - 1: सेवक पुरुष स्वार्माके आदेशके वश योग्य और अयोग्यका विचार छोडकर अत्यंत भयानक वर्षा शीत और ग्रीष्म ऋतुमें, अथवा सघन अन्धकारसे पूर्ण रात्रियोंमें, "यद्वा सर्प हस्ती-आदि भयानक हिंस्र जन्तुओंसे भरे हुए अत. एव अत्यंत रौद्र ऐसे जंगलोंमें घूमता फिरता है। केवल इनमें घूमता है इतना ही नहीं बल्कि यमराजके संमुख भी जा उपस्थित होता है। ऐसा क्यों करता है ? तो इसका उत्तर यही है कि उसने तृष्णा-लोभके वश होकर धनके स्वामी-सेठ साहूकार या राजा महाराजाको अपनी आत्मा बेचकर समीचीन आचार विचार कुल शास्त्राभ्यास तथा और अधिक क्या; स्वयं अपने विषयमें भी निर्दयता धारण करली है। शिल्पकर्म करनेवालोंकी भी निन्दा करते हैं:चित्रैः कर्मकलाधर्मैः परासूयापरो मनः । हतु तदर्थिनां श्राम्यत्यातपोष्येक्षितायनः ॥ ७६ ॥ .: शिल्पी मनुष्य जिनको शिल्पकी आकांक्षा है ऐसे मनुष्योंका मन हरण करनेकेलिये दूसरे शिल्पयोसे असूया करना-उनके गुणोंमें भी दोष प्रकट करना और नाना प्रकारके कर्म कला और धर्मके करनेसे खिन्न हुआ करता है। . मट्टी धातु काष्ठ पत्थर आदिकी कारीगरीको कर्म कहते हैं। गाना बजाना नाचना तैरना आदि दक्षताको कला कहते हैं। मूल्य लेकर पुस्तक वाचना आदि धर्म है। इन कर्मादिकोंमें प्रवृत्त हुए शिल्पीके धु - बध्याय TA
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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