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________________ अनगार स्वं . . धादिकसे पीडित हुए पोष्यजन-स्त्रीपुत्रादिक उसके आनेका मार्ग देखा करते हैं कि, कब वह कमाकर लावे और कब हमारी क्षुधादिकी पीडा दूर हो । शिल्पियोंकी दुरवस्थाका कथन करते हैं - आशावान् गृहजनमुत्तमर्णमन्यानप्याप्तैरिव सरसो धनैधिनोति । छिन्नाशो विलपति भालमाहते स्वं द्वेष्टीष्टानपि परदेशमप्युपैति ॥ ७७ ॥ ...'आज कलमें कर्मादि करनेसे मूल्य प्राप्त हो ही जायमा, मजदूरी मिल ही जायगी' ऐसी भविष्यत्में प्राप्त होनेवाले अर्थ-धनकी आशा रखकर यह गतवयस्क शिल्पी दृष्टचित्त होकर मानो वह धन हस्तगत ही होगया हो इस तरहसे अपने गृहजन-स्त्री आदि और उत्तमर्ण-साहूकार-बोहरे तथा दूसरे भी अपने संबंधी मित्रादिकोंको अच्छी तरह तृप्त करता है। किन्तु जब उसकी वह आशा टूट जाती है-सिद्ध नहीं होती तब रोने लगता है और अपना माथा कूटने लगता है। अपने प्रिय पुत्र कलत्रादिकोंसे द्वेष करने लगता है । अथवा परदेशको भी चला जाता है। देशान्तरमें भी धनकी आशासे यह खिन्न ही होता है। यही बताते हैं: आशया जीवति नरो न ग्रन्थावपि बद्धया । पञ्जाशतेत्युपायज्ञस्ताम्यत्यर्थाशया पुनः ॥ ७॥ अन० घ० १२ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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