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________________ अनगार 'गांठमें भी बंधे हुए पचासासे नहीं; आशासे मनुष्य जिया करता है।' ऐसी लोकमें कहावत है । बस इसी कहावतके अनुसार कर्म आदि जीविकाके उपायोंको जाननेवाला कारुक-शिल्पी फिर भी-परदेशमें भी जोकर धनकी आशासे खिन्न ही हुआ करता है। यदि इष्ट धनादिकका लाभ भी हो जाय फिर भी तृष्णा तो शांत नहीं होती, यही बात दिखाते हैं: कथं कथमपि प्राप्य किंचिदिष्टं विधेर्वशात् । पश्यन् दीनं जगद्विश्वमप्यधीशितुमिच्छति ॥ ७९ ॥ पूर्वकृत शुम कर्मकी सामर्थ्यसे यदि किसी न किसी तरह-अत्यंत कष्टों के द्वारा कुछ इष्ट-वाञ्छित पदार्थ प्राव भी हो जाय तो यह जीव समस्त जगतको दीन-अपनेसे हीन समझने लगता है और उसको अपने अधीन करना चाहता है। तृष्णावश होकर जगत्का स्वामी बनना चाहता है। जिनको धन प्राप्त होगया है उनको जो दूसरी दूसरी विपत्तियां प्राप्त होती हैं उन्हें दिखाते हैं: दायादाद्यैः करमावर्त्यमानः, पुत्राद्यैर्वा मृत्युना छिद्यमानः। रोगाद्यैर्वा बाध्यमानो हताशो, दुर्दैवस्य स्कन्धकं धिाग्बभर्ति ॥८॥ सधन पुरुषको भाई भानजे आदि दायादप्रभृति बारम्बार लङ्घनादिके द्वारा कूरतासे कदर्थित करते हैं। मृत्यु- यमराज आकर पुत्रादिकोंसे वियुक्त कर देता है । अनेक प्रकारके रोग और कारागृह आदि पीडित किया
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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