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________________ अनगार में ग्रंथकारने भी अपने तथा पर-श्रोताओंके विघ्नोंको दूर करने के लिये पहले सिद्धोंका और पीछे अहंतोंका नांदीमंगलरूपसे विनयकर्म किया है। क्योंकि जो जिस गुणका अभिलाषी होता है वह उस गुणवालेकी उपासना करता है। अत एव सिद्धत्वगुणके अभिलाषी ग्रंथकारने सबसे पहले सिद्धोंकी ही उपासना की है। इसके बाद अर्हतोंकी भी उपासना की है । क्योंकि सिद्धत्वकी प्राप्तिकलिये जिस उपायकी आवश्यकता है उसके सर्वप्रधान उपदेशक अहंत ही हैं। कहा भी है कि अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः, प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादप्रबुद्धे, न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।। इति । अर्थातः-भव्योंके अभीष्ट फलकी सिद्धिका उपाय सम्यग्ज्ञान है, जो कि उस शास्त्रसे उत्पन्न होता है कि जिसकी उत्पत्ति आप्तसे होती है । अत एवं उसके प्रसादसे प्रबुद्ध होनेवालोंकेलिये वह आप्त अवश्य ही पूज्य है। क्योंकि साधुपुरुष किसीके भी किये हुए उपकारको भूलते नहीं हैं। इसी प्रकार एक दूसरी बात यह भी है कि मोक्षकी अत्यंत इच्छा रखनेवालोंको परमार्थसे सबसे पहले सिद्ध परमात्माओंकी ही उपासना करनी चाहिये। इसी बातको दिखानेकेलिये ग्रंथकारने पहले सिद्धोंकी आराधना की है। कहा भी है कि सपयत्थं तित्थयरं अधिगतबुद्धिस्स सुत्तरोयस्स। दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपदं तस्स ।। तम्हा णिव्वुदिकामो णिसंगो णिम्ममो य भविय पुणो। सिद्धेषु कुणदि भंती णिव्वाणो तेण पप्पोदी ।। इति । जो जीव अपनी आत्माका अन्तिम साध्य अर्थ तीर्थकर पदको ही मानता है वह चाहे सूत्रोंमें रुचि रखने अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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