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भनगार
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वाला ही क्यों न हो; निर्वाण-मोक्ष और उसके साधन संयम तथा तपःसंपत्तिसे बिलकुल दूर है. अत एव निवृतिकी इच्छा रखनेवालोंको निःसंग और निर्मम होकर सिद्धोंमें भक्ति करनी चाहिये-अपना अन्तिम साध्य अर्थ सिद्ध पदको ही समझना चाहिये, जिससे कि वस्तुतः निर्वृतिकी प्राप्ति हो सके। ____ इस प्रकार अनंत ज्ञानादिगुणोंके समूहको प्राप्त करनेकी इच्छासे ग्रन्थकार पहले सिद्धोंकी आराधना करके अब उसके उपाय बतानेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ, तीन जगत्के ज्येष्ठ-गुरु, और समस्त संसारके अद्वितीय शरण्य भगवान् अर्हट्टारककी शरण प्राप्त करना मनमें रखकर उनकी स्तुति करते हैं
श्रेयोर्मागानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वदुःखदावस्कन्धे चक्रम्यमाणानतिचकितमिमानुद्धरेयं वराकान् । इत्यारोहत्परानुग्रहरसविलसद्भावनोपात्तपुण्य, प्रक्रान्तैरेव वाक्यैः शिवपथमुचितान् शास्ति योर्हन् स नोऽव्यात् ॥ २ ॥
KAREE RARRHERENCERNE FERRRAFARAHEATE
इस संसाररूपी वनमें जिसमें कि दुःखोंके दावानलका स्कन्ध बार बार और अच्छी तरह जलरहा है। इधर उधर भ्रमण करनेवाले किंतु कल्याणके मार्गसे अनमिन प्राणियोंके विषय में अत्यंत चकित होकर उत्पन्न हुई, और बढ़ रहा है परोपकारके रसका विलास जिसमें ऐसी-विविध प्रकार के दुःखोंसे अत्यंत त्रस्त हुई, 'तीन जगतके जीवोंका मैं एकसाथ ही कब उद्धार करदं' इस भावना-तीर्थकरत्वभावनाके बलसे संचित हुए पुण्य -तर्थिकर प्रकृतिके निमित्तसे ही उत्पन्न हुए वाक्योंके द्वारा जो अहंत देव, सभामें आये हुए भव्योंको कल्याणके मार्गका उपदेश देते हैं वे मेरी रक्षा करो।
भावार्थ-जहांपर नरक तिर्यच मनुष्य और देव इन चारो गतियोंमें ये जीव जन्ममरणको धारण करते हुए सदासे रहरहे हैं उसको भव या संसार कहते हैं । यह संसार एक प्रकारका वन है। क्योंकि जिस प्रकार
अध्याय