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________________ अनगार १९६ जिनेन्द्रदेवकी भक्ति करनेवाला सम्यग्दृष्टि भव्य देवेन्द्रों-स्वर्गके देव इन्द्र अहमिन्द्र तथा सर्वार्थसिद्धि तकके उत्कृष्ट देवोंकी अप्रमाण महिमाओं-विभूतियोंको अथवा महाराजोंके शिरोंद्वारा अर्चनीय-जिसको बडे बडे महाराज शिर झुकाकर नमस्कार करते हैं ऐसे राजेन्द्रचक्र-चक्रवर्तीतकके उत्कृष्ट मानर्वापदों या विभूतियोंको तथा समस्त लोकको नीचा करदेनेवाले तीन लोकमें उत्कृष्ट तीर्थकर जैसे पदका भोग कर अंतमें मोक्षको प्राप्त करता है। जब कि सम्यक्त्वरूपी परम प्रभुकी महिमा इतनी असाधारण है तब कहिये कि उसका आराधन किस तरह किया जाता है ? इसका उत्तर देते हैं मिथ्याग् यो न तत्त्वं श्रयति तदुदितं मन्यतेऽतत्त्वमुक्तं, नोक्तं वा तागात्मा भवभयममृतेतीदमेवागमार्थः। निम्रन्यं विश्वसारं मुविमलमिदमेवामृताध्वति तत्त्व,-. अडामाधाय दोषीजमनगुणविनयापादनाम्यां प्रपुष्वेत ॥ ६९ ॥ तत्वोंका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। उसके अनुसार जो उसका श्रद्धान नहीं करता किंतु कि. सीके भी-मिथ्यादृष्टि गुरु आदिके कहे हुए अथवा बिना कहे हुए ही विपरीत तत्वका श्रद्धान करलेता है उसको मिथ्यादृष्टि समझना चाहिये. यह आत्मा अनादि कालसे बैसा-मिथ्यादृष्टि रह कर ही मरणको प्राप्त हुआ है। इसलिये जो मुमुक्षु हैं उनको अपने अंतःकरणमें ऐसा श्रद्धान रखकर कि “ समस्त संसारमें सारभूत वस्तु यदि कुछ है तो वह निग्रंथ अवस्था ही है, अत्यंत निर्मल यह अवस्था ही मोक्षका मार्ग है और यही समस्त आगम-प्रवचनका अर्थ-अभिप्राय है।" उस तत्वश्रद्धाकी, दोषोंके त्याग और गुणों तथा विनयके द्वारा प्रकृष्ट रूपमें, पुष्टि करना उचित है । अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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