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________________ अनगार धर्म १९५ छसु हेट्रिमासु पुढविसु जोइसिवणभवणसव्वइत्थीसु । वारस मिच्छुववाए सम्माइठ्ठी ण उववण्णा ॥ नीचेकी छह पृथिवी-नरक ज्योतिषी व्यंतर भवनवासी समस्त स्त्री और बारह मिथ्योपपाद इतने स्थानोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता । इससे योगोंके इस मतका खण्डन होजाता है कि - नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ सैकडों कल्पकोटि कालके बीत जानेपर भी कोई भी कर्म विना भोगे नहीं छूट सकता | कैसा भी कर्म क्यों न हो - चाहे शुभ हो चाहे अशुभ, जो बांधा है वह अवश्य ही भोगना पडता है। . इस प्रकार सम्यग्दर्शनके प्रतापसे दुर्गतियोंका ध्वंस होता है और अभ्युदयोंकी सिद्धि होती है । तथा इसके प्रसादसे ही सुरेन्द्रादिककी विभूतियोंको भोगकर और पुनः उनको छोडकर जीव परम आर्हन्त्य पदको प्राप्त होजाता है। इस तरहसे यह सम्यग्दर्शन ऊर्ध्व मध्य और अधोलोकके सभी स्वामिओं-विभूतिभोगियोंको उच्छिष्टभोजी बना देता है । इस प्रकार अनेक माहमाओंसे युक्त सम्यग्दर्शनके निमित्तसे ही जीव उसी भवमें शिवरमाके कटाक्षपातसे प्रकट हुए अपूर्व--लोकोत्तर सुखका भोक्ता होजाता है। जैसा कि आगममें भी कहा है यथा,- । देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं, राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्र शिरोर्चनीयम् । धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं, - लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः॥ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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