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________________ अनगार ५६१ अध्याय ५ ब्राह्मणादिकों में से जो गृहस्थ नित्य नैमित्त अनुष्ठान करनेवाले हैं वे दाता हो सकते हैं; किन्तु शिल्पी आदि नहीं हो सकते जैसा कि कहा भी है कि- शिल्पिका रुकवाक्पण्यशंफली पतितादिषु । देहस्थितिं न कुर्वीत लिङ्गि लिङ्गोपजीविषु ॥ दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेपि जन्तवः ॥ जिस नवधा भक्तिसे दाता दान देता है उसको नवपुण्यशब्दसे कहा है। जिसके कि नाम इस प्रकार हैं पडिगहमुचठ्ठाणं पादोदयमचणं च पणमं च । मणवयणकायसुद्धी एसणसुद्धीय नवविहं पुण्णं ॥ प्रतिग्रह उच्चस्थान पादप्रक्षालन पूजन प्रणाम और मन वचन कायकी शुद्धि तथा मोजनसम्बन्धी शुद्धि इस प्रकार नौ कर्तव्यों को नवपुण्यशब्द से कहा है । द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धिमें क्श अन्तर है सो बताते हैं: द्रव्यतः शुद्धमप्यन्नं भावाशुद्धया प्रदुष्यते । भावो शुद्धो बन्धाय शुद्धो मोक्षाय निश्चितः ॥ ६७ ॥ यदि अन्न -- भोज्य सामग्री द्रव्यतः शुद्ध-प्रासुक भी हो किन्तु भावतः ' मेरे इसने यह बहुत अच्छा किया' इत्यादि परिणामोंकी दृष्टिसे अशुद्ध हैं तो उसको अशुद्ध-सर्वथा दूषित ही समझना चाहिये। क्योंकि बन्धमोक्ष के कारण परिणाम ही माने हैं । आगममें अशुद्ध परिणामोंको कर्मबन्धका और विशुद्ध परिणामोंको मोक्षका कारण बताया है । अत एव जो अन द्रव्यसे शुद्ध रहते हुए भी भावसे भी शुद्ध है उसीको ग्रहण करना चाहिये। जैसा कि कह मी है कि 5. MEEN धर्म० ५६१
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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