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________________ म्रक्षितं स्निग्धहस्तायैर्दत्तं निक्षिप्तमाहितम् । सचित्तक्ष्माग्निवा/जहरितेषु त्रसेषु च ॥ ३०॥ अनगार ५४३ घी तेल आदिके द्वारा स्निग्ध-सचिक्कण हुए हाथ अथवा चमचा करछली आदि पात्रोंके द्वार दी गई भोज्यसामग्रीके ग्रहण करनेमें प्रक्षित नामका दोष लगता है। जो वस्तु सचित्त पृथिवी जल अग्नि बीज और हरितकाय इन पांचके ऊपर अथवा छठे त्रसकाय-द्वींद्रियसे लेकर पंचेन्द्रियतकके ऊपर रक्खी हुई हो उसके ग्रहण करनेमें निक्षिप्त नामका दोष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि: सचित्त पुढवि आऊ तेऊ हरिदं च बीज तसजीवा। जं तेसिमुवरि ठविदं णिक्खित्तं होदि छब्भेयम् ।। छोटित दोषका स्वरूप बताते हैं: अध्याय भुज्यते बहुपातं यत्करक्षेप्यथवा करात । गलद्वित्त्वा करौ त्यक्त्वाऽनिष्टं वा छोटितं च तत् ॥ ३१ ॥ प्रकारभेदसे छोटित दोष पांच तरहका है। क्योंकि बहुतसी मोज्यसामग्रीको गिराकर अथवा छोडकर थोडे आहारके ग्रहण करनेमें, और परोसनेवाले दाताके द्वारा हाथपर छोडी गई किन्तु तक्र आदिके द्वारा झरती हुई वस्तुके ग्रहण करनेमें, तथा जिससे भोज्य सामग्री टपक रही है ऐसे हाथसे भोजन करनेमें, एवं दोनो हाथोंको अलहदा अलहदा करक भोजन करनेमें, और अनिष्ट आहारको छोडकर इष्ट पदार्थके ग्रहण करने में छोटित दोष लगता है। अपरिणत दोषको बताते हैं। ५४३.
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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